गुरुवार, 16 मार्च 2017

युग को पीता पाषाण

नहीं था कोई औचित्य उस बात पर कुछ कहने और लिखने का। क्यों होता भला, एक रोजनामचा पढ़ा, और रसोई में, अपने दैनिक कार्यों में लग गयी। आम बात थी, कुछ खास नहीं था। ऐसा तो आये दिन रोज ही कुछ ना कुछ होता रहता है। सबकी तरह मैं भी संवेदनहीनता के स्तर पर पहुँच गयी हूँ शायद। अब मेरे खून में भी जोश न रहा। झाँसी की रानी, पद्मावती का जौहड़ और हलकारी का जूनून गुजरे जमाने की बात लगती है। त्रेता, द्वापर जैसा ही लगता है अभी अभी गुजरे हुए सौ साल।
लेकिन एक लघुकथा आँखों के सामने पूरे वजूद के साथ खड़ी हो गयी सामने आकर। आँखें चुराते चुराते कि होगी उसी खबर पर लिखी गयी एक और खबर, सोचकर सरसरी निगाह मार ही डाली, आखिर बात लघुकथा की थी सो ना रह पायी।
आदरणीय घनश्याम मैथिल अमृत जी की लघुकथा 'बड़ी मदद'..........
ओह, पढ़ते ही मन आक्रोश से भर उठा। सुबह से अनदेखा सा वह रोजनामचा सामाचार से परे विराट कथ्य दैत्याकार रूप में सामने खड़ा हो गया। चाह कर भी छूट नहीं सकी। अब तक जकड़ कर रखा हुआ है।
प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ शब्द आप सबके लिए--
युग को पीता पाषाण
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विशाल मानव समुदाय भीड़ के शक्ल में खड़ा पत्थर बन द्वंदों को जी रहा था, दरअसल वह युग को पी रहा था।
मानवता को डकार कर इंसान जिंदगी कहाँ पाता है भला! उसके सामने जो युवक लड़ रहा था, पेट में घुसे खंजर और बाहर तक निकली अंतरियों के लटक जाने तक अपने लिए लड़ते-लड़ते मर रहा था। हाँ, वो मर रहा था। वह लड़ाई उसकी अकेली थी।
लड़ाई-झगड़े अब सामाजिक सरोकार से निष्कासित हो चुके हैं। वह निजता में सिमट गयी है।
उसके मरने से समाज जिंदा बचा रहेगा। आगे बढ़कर बचाने में, साथ देने में कहीं भीड़ भी मर जाती....! कहीं उस पर भी प्रहार होता...!
खंजर का घात सहना भीड़ के बस की बात नहीं है।
भीड़ को तमाशाई बन कर रहना चाहिये क्योंकि वही पोषक होता है अन्याय का। भीड़ को सिर्फ दर्शक बन रहना चाहिये और सिर्फ देखना चाहिये तमाशा आतंक का।
जब उसकी बारी आयेगी, उसकी बेटी, उसकी बहू या उसका बेटा, वे भी इसी तरह आतंक के भूख का कौर बनकर काल के गाल में समा जायेंगे।
इंसानियत को खाकर- पचाकर आतंक अपने मजबूत पुष्ट कंधों से दहाड़ेगा। घुमेगा गलियों में, मेरे और आपके सबके गलियों में। हम सहमे-सहमे अपने घर में, दरवाजे पर कुंडी, मोटी-मोटी जंजीर चढ़ाये अंदर बैठे रहेंगे। वह कुंडी खड़का कर, बंदूक की नोक से डरा कर अंदर आयेगा और निगल लेगा उसे जिसकी तलब , जिसकी भूख उसे होगी। भूख में बेटी-बोटी, गोश्त, गर्म हो या हो ठंडा सब शामिल रहेगा। वह सब लील जायेगा।
कोई नहीं लड़ेगा, भाई, बेटा, बाप, पति सब रहेंगे पत्थर बन कर क्योंकि पत्थर युगों को पीते हैं।
दरअसल दूसरों के लिए मरना ठीक नहीं। दूसरों के लिए मरने में खून जाया होता है, माँ के सीने का दूध जाया होता है।
हाँ, ठीक है कि पैदा हुए होंगे भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद। लड़े होंगे, मरे होंगे दूसरों के लिए, मुल्क के लिए, देश के लिए भी, वे सब पागल सटके हुए थे इसलिए तो मिट्टी को भी माँ कहते थे।
माँ के दूध की लाज अपना लहू बहाकर ...... ना! ऐसी बेवकूफी आज के प्रैक्टिकल लोग नहीं करते हैं।
अब देश तरक्की कर रहा है, हम माटी से दूर वैश्वीकरण को अपना रहें हैं। वैश्वीकरण को अपनाने वाले उच्च-शिक्षित लोग होते हैं। पढ़े-लिखे समाज में रहने का एक तौर तरीका होता है। सिर्फ अपने तन का, अपने मन का ख्याल रखना होता है।
मेलजोल, दूसरों के लिए जान देना, दया- भावना यह सब अपढ़ता, पिछड़ेपन की निशानी है।
हम को सिर्फ अपने देह के लिए ही सोचना है, निज हित में ही प्रतिष्ठा है। आत्मकेन्द्रित होना वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तरक्की की निशानी है।
हम विकासशील हैं इसलिए भले तुम मरो लेकिन मुझे जीने दो, मुझे जीने दो।
यह सच है कि कल मेरी भी बारी आयेगी, सोचकर हम पत्थर बन जाते हैं, पत्थर हैं पत्थर ही सही, हमें युगों को पीने दो, हमें जीने दो, हमें जीने दो।
कान्ता रॉय


शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

नशे की बंदगी/लघुकथा


रात के दो बजे , रोज की ही तरह , आज भी झूमते हुए घर में प्रवेश किये और सीधे बिस्तर पर धम्म से पसर गए । महीने की पहली तारीख को पति का ये हाल देख पत्नी ने फिर से अपना माथा धुन्न लिया । घर -खर्च के लिए इस महीने भी कुछ बचाकर नहीं लाये होंगे । इतने लोगों की उधारी सिर पर पड़ी थी । कितना समझाया कि पीना छोड़ दो , ठीक है छोड़ नहीं सकते है तो कम ही कर दो । लेकिन मेरी कब सुने है ये !
अब दोनों बेटे भी बाप के रास्ते चल पड़े है। उनका जीवन भी.... अब ईश्वर जाने ,किसकी , कैसे कटेगी ! वैसे भी अब किसी से आस न रही ,जब पति का सुख ही नहीं भाग्य में ,तो संतानो से उम्मीद कौन करें !
" खों खों ......खों खाह ! यच्च ...."
" अरे .... कैसे उलटी कर रहे हो , कितना पी लिया आज .... " वह बदहवास सी दौड़कर , पति को बाहों में ले , उनकी पीठ सहलाने लगी। अचानक वह उसकी बाहों में ही बेहोश हो गए।
" क्या हुआ आपको ऐसे औंधे क्यों पड़े है , अरे , कोई तो दौड़ो ,देखो न इनको क्या हो गया ? " अनिष्ट अंदेशा से घबड़ा कर वह जोर -जोर से चीत्कार उठी।
" रोज -रोज की किच -किच , साला , इस बुड्ढे ने रात का सोना भी हराम कर दिया है " बगल के कमरे में लड़के के नींद में खलल पड़ी तो, आँख मीचते हुए चिल्ला पड़ा ।
माँ की चिल्लमचोट से परेशान होकर पिता के कमरे में आकर देखा तो , " लगता है आज बुड्ढा खल्लास हो चुका है । "
" क्या हुआ माई ,क्यों परेशान कर रखा है गली -पड़ोस को , गया तो जाने दे , कौन सा पिता वाला बड़ा काम किया है इसने ? "
पत्नी की बाहों में ,बेहोश सा निढाल,अपनी असहाय परिस्थिति में , होशमंद सा आँख खोल , पुत्र की ओर देख , आत्मग्लानि से वह भर उठा। उम्र -भर नशे की बंदगी करने का परिणाम बेटे के शक्ल में उसके सामने खड़ा था।
कान्ता रॉय
भोपाल