शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

नशे की बंदगी/लघुकथा


रात के दो बजे , रोज की ही तरह , आज भी झूमते हुए घर में प्रवेश किये और सीधे बिस्तर पर धम्म से पसर गए । महीने की पहली तारीख को पति का ये हाल देख पत्नी ने फिर से अपना माथा धुन्न लिया । घर -खर्च के लिए इस महीने भी कुछ बचाकर नहीं लाये होंगे । इतने लोगों की उधारी सिर पर पड़ी थी । कितना समझाया कि पीना छोड़ दो , ठीक है छोड़ नहीं सकते है तो कम ही कर दो । लेकिन मेरी कब सुने है ये !
अब दोनों बेटे भी बाप के रास्ते चल पड़े है। उनका जीवन भी.... अब ईश्वर जाने ,किसकी , कैसे कटेगी ! वैसे भी अब किसी से आस न रही ,जब पति का सुख ही नहीं भाग्य में ,तो संतानो से उम्मीद कौन करें !
" खों खों ......खों खाह ! यच्च ...."
" अरे .... कैसे उलटी कर रहे हो , कितना पी लिया आज .... " वह बदहवास सी दौड़कर , पति को बाहों में ले , उनकी पीठ सहलाने लगी। अचानक वह उसकी बाहों में ही बेहोश हो गए।
" क्या हुआ आपको ऐसे औंधे क्यों पड़े है , अरे , कोई तो दौड़ो ,देखो न इनको क्या हो गया ? " अनिष्ट अंदेशा से घबड़ा कर वह जोर -जोर से चीत्कार उठी।
" रोज -रोज की किच -किच , साला , इस बुड्ढे ने रात का सोना भी हराम कर दिया है " बगल के कमरे में लड़के के नींद में खलल पड़ी तो, आँख मीचते हुए चिल्ला पड़ा ।
माँ की चिल्लमचोट से परेशान होकर पिता के कमरे में आकर देखा तो , " लगता है आज बुड्ढा खल्लास हो चुका है । "
" क्या हुआ माई ,क्यों परेशान कर रखा है गली -पड़ोस को , गया तो जाने दे , कौन सा पिता वाला बड़ा काम किया है इसने ? "
पत्नी की बाहों में ,बेहोश सा निढाल,अपनी असहाय परिस्थिति में , होशमंद सा आँख खोल , पुत्र की ओर देख , आत्मग्लानि से वह भर उठा। उम्र -भर नशे की बंदगी करने का परिणाम बेटे के शक्ल में उसके सामने खड़ा था।
कान्ता रॉय
भोपाल

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