शुक्रवार, 3 जून 2016

जूते की कीमत /लघुकथा




उसका जूता खो गया था। बेचैन होकर ढूंढ रहा था। अपने सीट से लेकर बोगी भर के सीट के नीचे ढूंढ आया। कहीं नहीं मिला ।
" बड़ी मुश्किलों से पेट काट कर पाई -पाई जोड़कर खरीदा था। बहुत महंगा था।" कहते हुए वह सुबक उठा।
साथ बैठा सहयात्री धनिक व्यक्ति था। उसे फटीचर हालत में अपने पास बैठे देख नाक -भौं चढ़ा उस पर अपना रौब दिखाता हुआ आया था। स्लीपर क्लास में सफर करना उसकी मजबूरी थी । उसको भी सहानुभूति हो आई ।
" कितने का था ? "
" पूरे २०० रूपये का "
" सिर्फ २०० रूपये ... ओह ! "
" माँ कसम ! सच्च कह रहा हूँ ,पूरे २०० रूपये का था "
" अच्छा ,अच्छा मान गया , अब यह बताओ किस रंग का था ? "
" सफेद रंग का ....." कहते हुए वो सहयात्री के पैरों की ओर ताकने लगा ।
सहयात्री अकचका कर पैर अंदर की ओर समेट लिया ।
" इस जूते जैसा था शायद , नहीं , मेरा जूता इससे अधिक सुंदर था " रोते- रोते जोर की हिचकी ली ।
" ये रिबाॅक का जूता है , पूरे ४००० रूपये का । तुम्हारे २०० रूपये के जूते की औकात नहीं इसके साथ मुकाबला कर ले । " सहयात्री तमतमा उठा ।
" फिर तो , हो ना हो तुम्हीं ने मेरा जूता चुराया है "
" क्या बकवास हैै यह ?"
" दूकान वाले ने कहा था कि यह ४००० रूपये वाली जूते को मात दे सकता है "
" दुकानदार की इस बात से कैसे साबित होता है कि मैने चुराया है तुम्हारा जूता "
" क्योंकि उस जूते की असली कीमत तुम जानते थे "
" तुम्हारा जूता नकली था "
" जूता भी नकली होता है भला ! मेरे पैरों में भी वैसे ही दमकता था जैसे तुम्हारे पैरों में ये है । घर से पहन कर निकला था तो पैरों में नर्म - नर्म गद्दियों पर चलने जैसा लग रहा था । अब तो तुम्हारा सामान चेक करूँगा , हो ना हो तुम्हीं ने मेरा जूता चुराया है । "
आस - पास के सभी यात्री एकाग्र होकर देर से इन्हीं दोनों पर नजरें गड़ाये इनकी बातें सुन रहे थे ।
इस आरोप से अकचकाया हुआ सहयात्री उसके जूते की तलाश में इधर - उधर नजरें फिराने लगा कि नजर सीट के नीचे एक जोड़ी पूरानी अनाथ चप्पल पर पड़ी । वह हैरान हुआ । वहां बाकी यात्रियों के पैरों में जूते - चप्पल मौजूद थे , सिर्फ यही नंगे पैरों से था ।
" ले तेरा जूता । " मुस्कुराते हुए वहाँ से चप्पल निकाल उसके सामने रख दिया । चप्पल पर नजर पड़ते ही उसकी नजरें नीचे झुक गई ।
सहयात्री ने अपनी जेब से २०० रूपये निकाल कर उसके हाथ पर रख दिया ।
" यह भी रख ले ।" ट्रेन रूक चुकी थी । सहयात्री अपना सामान लेकर जा चुका था ।
बाकी बचे लोग अब उसे घूर रहे थे ।

कान्ता राॅय
भोपाल

विष /लघुकथा


सुषमा जल्दी-जल्दी अपना काम निपटा रही थी कि एक और आवेदन सामने, उस पर नजर पड़ी तो अकचका उठी।
"अरे आप सुधीर जी?"
"सुषमा!" नज़र मिलते ही उदास आँखों में चमक-सी कौंध गई ।
"जी, आइये इधर बैठियेI" सामने की कुर्सी की ओर इशारा किया।
"मुझे माफ कर देना, अपनी बेटी का रिश्ता करवाने के चक्कर में मैने तेरा रिश्ता तुड़वाने का पाप किया थाI" सुनकर उसको अजीब सी अनुभूति हुई
"आपकी वजह से ही तो मै आज यहाँ हूँ, उस वक्त मेरी शादी हो गई होती तो आज यहाँ की कमिश्नर थोड़ी ना होतीI" उसने हलके व्यंग के साथ कहा
“तुम्हें देख कर मै हर्ष से पुलकित हूँI"सुधीर जी सहज हो रहे थे ।
"मै भी आपकी ऋणी हूँ, आपके कारण मेरी जिंदगी बदल गई।" उसने गंभीरता को थोड़ी ढील दी ।
"इसमें कोई शक नहीं, ऋणी तो होना ही चाहिए। तेरे चरित्र पर जो लाँछन मैने लगाया था वो तुझे फलित हो गया, है ना?! हो हो हो हो..." एकाएक शब्द उनके मुंह से फूट पड़े ।
समय की पिटारी का ढकना खुलते ही अजगर मुँह लपलपाने लगा । विषाक्त अनुभूतियाँ बदबदाती हुई बाहर आ चुकी थी।
“ट्रिन ट्रिन..",
"जी मैम, कहियेI" चपरासी उपस्थित हुआI
"तुरंत इस कीटाणु को बाहर फेंक कर आओI"
"अरे, अरे सुषमा ये क्या कर रही हो? मेरा काम तो करवा दो।"
"एक मिनट रूको, आsक थू !...जाओ, अब फेंक आओ इसे I"

कान्ता रॉय
भोपाल

टूटते अंतराल की विवशता /लघुकथा



"क्या कहा तुमने अभी, अब तक शादी नहीं किये , लेकिन क्यों ? " आज अचानक उससे सामना होने , बातों के सिलसिला चलने पर वह अपनी उत्कंठा दबा नहीं पाई।

" मै तुम्हारे तरफ से वापस लौट ही नहीं पाया " वही सहज स्नेहिल स्वर महसूस किया उसने ।
" पर हमारा तलाक तो इसी बात पर हुआ था कि हमें अलग - अलग रह कर नया पार्टनर चुनना है । "
" हाँ , बात तो यही हुई थी ।"
" तो फिर "
" तुम्हें भूल नहीं पाया । आगे कैसे बढ़ता , बहुत प्यार करता हूँ , लौट आओ फिर से मेरे पास । "
उसके जुबान से कहे एक - एक अक्षर दावानल की तरह रमा के कलेजे में उतरने लगा । उसकी ओर ताका और आँखों को मुँद लिया ।
आज का यथार्थ , हाथों में पहनी नई - नई सुहाग की चूड़ियों की कसावट बढ़ने लगी । अतीत की चाह में अब वर्तमान से जूझ रही थी ।

कान्ता राॅय
भोपाल