शुक्रवार, 3 जून 2016

विष /लघुकथा


सुषमा जल्दी-जल्दी अपना काम निपटा रही थी कि एक और आवेदन सामने, उस पर नजर पड़ी तो अकचका उठी।
"अरे आप सुधीर जी?"
"सुषमा!" नज़र मिलते ही उदास आँखों में चमक-सी कौंध गई ।
"जी, आइये इधर बैठियेI" सामने की कुर्सी की ओर इशारा किया।
"मुझे माफ कर देना, अपनी बेटी का रिश्ता करवाने के चक्कर में मैने तेरा रिश्ता तुड़वाने का पाप किया थाI" सुनकर उसको अजीब सी अनुभूति हुई
"आपकी वजह से ही तो मै आज यहाँ हूँ, उस वक्त मेरी शादी हो गई होती तो आज यहाँ की कमिश्नर थोड़ी ना होतीI" उसने हलके व्यंग के साथ कहा
“तुम्हें देख कर मै हर्ष से पुलकित हूँI"सुधीर जी सहज हो रहे थे ।
"मै भी आपकी ऋणी हूँ, आपके कारण मेरी जिंदगी बदल गई।" उसने गंभीरता को थोड़ी ढील दी ।
"इसमें कोई शक नहीं, ऋणी तो होना ही चाहिए। तेरे चरित्र पर जो लाँछन मैने लगाया था वो तुझे फलित हो गया, है ना?! हो हो हो हो..." एकाएक शब्द उनके मुंह से फूट पड़े ।
समय की पिटारी का ढकना खुलते ही अजगर मुँह लपलपाने लगा । विषाक्त अनुभूतियाँ बदबदाती हुई बाहर आ चुकी थी।
“ट्रिन ट्रिन..",
"जी मैम, कहियेI" चपरासी उपस्थित हुआI
"तुरंत इस कीटाणु को बाहर फेंक कर आओI"
"अरे, अरे सुषमा ये क्या कर रही हो? मेरा काम तो करवा दो।"
"एक मिनट रूको, आsक थू !...जाओ, अब फेंक आओ इसे I"

कान्ता रॉय
भोपाल

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