बुधवार, 11 मई 2016

गिरह


तुम संग मेरा रिश्ता
बुनती रही , गुनती रही
रात से सुबह तक 
सुबह से शाम तक
साँसों से साँस लेकर
हृदय से स्पंदन लेकर
गुँथती रही
दिन ,हफ्ते ,महीने, साल
सपनों से बीते
गुँथे हुए सपनों में
तुम्हारे अपनापन में
मन निश्चिंत रहा
बिना किसी आहट के
बिना सरसराहट के
चुपके से हवा चली
बुने हुए ,गुने हुए
चाव से गुँथे हुए
प्रीत भरे रिश्ते
खुलकर बिखर गये
क्यों , ऐसे कैसे ...? सोचती रही
अरे ! ....ध्यान आया
गुँथे हुए तेरे -मेरे रिश्ते पर
गिरह लगाना जो भूल गई थी ।
कान्ता राॅय
भोपाल


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