कुछ - कुछ जिन्दा सा , अपनी साथ मरी हुई यादें लिये , यहाँ सड़क की सीढ़ियों पर वह रोज अकेले शाम को बैठा करता था । आते - जाते लोग उसे देखते और मुँह बना कर निकल जाते ।
लोगों का व्यवहार देख अचरज से भर जाता । एक विचित्र-सी बेचैनी , एक अजीब-सी छटपटाहट मन पर छा जाती । कभी खुद को देखता तो कभी लोगों को । स्वंय में हीनता का बोध पनपने का एहसास हुआ । महज़ कुछ लोगों के नागवार गुजरने के कारण वह अपने बैठने की इस जगह को छोड़ना नहीं चाहता था ।
इस स्थिति से निकलने का ऊपाय ढुंढने लगा ।
इस स्थिति से निकलने का ऊपाय ढुंढने लगा ।
धीरे - धीरे लोगों के तिरस्कृत नजर को सहन करने लगा । अब जब लोग उसे देखते तो वह भी घूर कर देखता जब तक कि देखने वाला उसको देखना ना छोड़ दे ।
कोई टिप्पणी नहीं :
एक टिप्पणी भेजें