मंगलवार, 5 जुलाई 2016

२८ वाँ अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा- मंच ,पटना के तत्वावधान में आयोजित लघुकथा - सम्मेलन /कान्ता रॉय

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नशे की बंदगी /लघुकथा /कान्ता रॉय


रात के दो बजे , रोज की ही तरह , आज भी झूमते हुए घर में प्रवेश किये और सीधे बिस्तर पर धम्म से पसर गए । महीने की पहली तारीख को पति का ये हाल देख पत्नी ने फिर से अपना माथा धुन्न लिया । घर -खर्च के लिए इस महीने भी कुछ बचाकर नहीं लाये होंगे । इतने लोगों की उधारी सिर पर पड़ी थी । कितना समझाया कि पीना छोड़ दो , ठीक है छोड़ नहीं सकते है तो कम ही कर दो । लेकिन मेरी कब सुने है ये !
अब दोनों बेटे भी बाप के रास्ते चल पड़े है। उनका जीवन भी.... अब ईश्वर जाने ,किसकी , कैसे कटेगी ! वैसे भी अब किसी से आस न रही ,जब पति का सुख ही नहीं भाग्य में ,तो संतानो से उम्मीद कौन करें !
" खों खों ......खों खाह ! यच्च ...."
" अरे .... कैसे उलटी कर रहे हो , कितना पी लिया आज .... " वह बदहवास सी दौड़कर , पति को बाहों में ले , उनकी पीठ सहलाने लगी। अचानक वह उसकी बाहों में ही बेहोश हो गए।
" क्या हुआ आपको ऐसे औंधे क्यों पड़े है , अरे , कोई तो दौड़ो ,देखो न इनको क्या हो गया ? " अनिष्ट अंदेशा से घबड़ा कर वह जोर -जोर से चीत्कार उठी।
" रोज -रोज की किच -किच , साला , इस बुड्ढे ने रात का सोना भी हराम कर दिया है " बगल के कमरे में लड़के के नींद में खलल पड़ी तो, आँख मीचते हुए चिल्ला पड़ा ।
माँ की चिल्लमचोट से परेशान होकर पिता के कमरे में आकर देखा तो , " लगता है आज बुड्ढा खल्लास हो चुका है । "
" क्या हुआ माई ,क्यों परेशान कर रखा है गली -पड़ोस को , गया तो जाने दे , कौन सा पिता वाला बड़ा काम किया है इसने ? "
पत्नी की बाहों में ,बेहोश सा निढाल,अपनी असहाय परिस्थिति में , होशमंद सा आँख खोल , पुत्र की ओर देख , आत्मग्लानि से वह भर उठा। उम्र -भर नशे की बंदगी करने का परिणाम बेटे के शक्ल में उसके सामने खड़ा था।
कान्ता रॉय
भोपाल

काँपते पत्ते/लघुकथा /कान्ता रॉय


"सुनो , कुछ कहना है " बड़ी हिम्मत करके पति की तरफ देखा उसने ।
" क्या हुआ अब , आज फिर माँ से कहा-सुनी हो गई है क्या ?" उन्होंने पूछा ।
" अरे नहीं , माँ से कुछ नहीं हुआ । बात दीपू की है " उसने तीखे स्वर में कहा ।
" अब उसने क्या कर दिया "
" वो ..."
" वो क्या , अरे बताओ भी , किसी से सिर फुट्व्वल करके तो नहीं आया है " उन्होंने तमतमाये चेहरे से पूछा ।
" कैसी बात करते है आप , अपना दीपू वैसा नहीं है " वह एकदम से कह उठी ।
" तो कैसा है , अब तुम्हीं बता दो ? "
" उसकी एक गर्ल फ्रेंड है , आज ही मुझे पता चला है "
" तुम्हारा दिमाग तो सही है , मालूम भी है क्या कह रही हो । वो बहुत छोटा है इन सबके लिए "
" उतना छोटा भी नहीं है । दसवीं का परीक्षा दिया है उसने "
" अच्छा , क्या वो स्पेशल फ्रेंड है ?"
" हाँ , इसलिए तो चिंतित हूँ "
"हम्म , चिंता का विषय तो है । इस बात में दीपू को आगे बढ़ने के लिए प्रश्रय नहीं दिया जा सकता है । "
" तो क्या आप उसके साथ .... " उस स्वर के आतंक से वह चौंक उठी ।
" कल सुबह बात करता हूँ उससे ।" सुनते ही सुबह होने और आने वाले निर्णय के क्षण की अनिश्चितता से उसके अंदर चटाख - चटाख सा कुछ टूट रहा था ।
कान्ता राॅय
भोपाल

गरीब होने का सुख/लघुकथा /कान्ता रॉय


ईंट का आखिरी खेप सिर से उतार कर पास रखे ड्रम से पानी ले हाथ-मुँह धो सीधे उसके पास आकर खड़ा हो गया ।
" सेठ , अब जल्दी से आज का हिसाब कर दो "
" कल ले लेना इकट्ठे दोनों दिन की मजूरी ।"
" नहीं सेठ , आज का हिसाब आज करो , कल को मै काम आता या नहीं , भरोसा नहीं "
" मतलब "
" इस हफ्ते पाँच दिन काम किया ना , बहुत कमा लिया ,इतना ही काफी है । अब अगले हफ्ते ही काम पर आऊँगा ।"
" बहुत कमा लिया , हूँ ह ! इतनी-सी कमाई में क्या - क्या करोगे ?"
" क्या-क्या नहीं करूँगा यह पूछो सेठ " आँख चौड़ी करते हुए वह कह उठा ।
" हम तुम्हारे तरह हवेली में रहकर दुखी में नहीं रहते । हम खुशी से जीने के लिए कमाते है । तुम्हारी तरह धन कमा कर जमा करने के लिए रोते - रोते जिंदगी बसर नहीं करते है । " सुनते ही वह झल्ला पड़ा ।
" तुम्हारे घर में भी तो बीवी ,बच्चे और उनकी पढ़ाई- लिखाई का खर्च होगा "
" अरे सेठ , वो सब भी है । गरीब होने का सुख तुम नहीं समझोगे " कहते हुए वह हँस पड़ा ।
" चलो , अब तुम्हीं समझा जाओ मुझे गरीब होने का सुख " उसके सुख से वह अब अनमना उठा था ।
" देखो सेठ , हम सरकारी जमीन पर बने झुग्गी में रहते है । जहाँ पानी और बिजली फ्री है । बच्चे लोग सरकारी स्कूल में पढ़ते है जहाँ किताब, काॅपी, कपड़े के साथ एक वक्त का खाना भी फ्री में । घर का खर्चा , गरीबी रेखा का कार्ड है । अरे लालकार्ड ! " आँखों में आँखें डालकर फिर तैश में कहने लगा " तो अनाज से लेकर दूसरी सुविधा भी लगभग फ्री में "
" लेकिन तुमको ऐसा लगता है कि सरकारी स्कूल में पढ़कर तुम्हारे बच्चे होनहार बनेंगे ? " उस फटीचर का सुख अब असहनीय हो उठा था ।
" ओह सेठ , तुमको मालूम कि हम गरीब होनहार ही पैदा होते है । मेरा बेटा भी बड़ा होकर मजूरी करें और मस्त जिंदगी जिये , यही मेरा सपना है ।
" ऐसा क्यों सोचते हो "
" क्योंकि अगर स्कूल पास कर गया और कहीं सरकारी नौकरी लग गई तो बेड़ा ही गर्क हो जायेगा हमारा ।"
" अरे , उसके नौकरी करने से तो तुम सबका विकास होगा " वह कल्पना ही नहीं कर सकता था कि कोई स्वेच्छा से गरीब रहना पसंद करेगा ।
" क्या खाक विकास होगा ! सरकारी नौकरी , सरकारी क्वार्टर , क्वार्टर में रहन - सहन का खर्चा । फिर हम भी तुम्हारी लाईन पर आ जायेंगे और तुम्हारे कथित विकास के साथ दिन - रात का चैन भी खो देंगे । फिर तो गया ना " गरीबी का सुख " पानी में ।
दोनों की बातों को चुपचाप सुनती हुई तनी हुई हवेली अब धीरे -धीरे सिकुड़ती जा रही थी ।
कान्ता राॅय
भोपाल

सुरंग /लघुकथा /कान्ता रॉय


" माँ , आप तो चित्रा के बारे में जानती है सब कुछ , तो अब किस बात का संशय है? "
अभि के कहते ही उसने चित्रा की ओर देखा।
" हाँ , बहुत खूबसूरत है। इसमें मुझे मेरी खोई बेटी नजर आती है। "और भावातिरेक में बह गई।
" आँटी , मै चाय बना लाऊँ "
" नहीं , रहने दो ,मै बना लाती हूँ "
" आप तो रोज बनाती है।आज मै बना लाती हूँ ?"
मन भँवर में फँसा हुआ था । क्या करें ,होने दे जो होने वाला है। दायित्व-विहीन हो जाये । बेटे के व्याह का सपना ,बहू की पीली हथेली , वर्षों से आँखों के सामने नाचती थी। स्वप्न पूरा होने के लिए आज सामने हैै। इजाज़त उसे देनी होगी।
" अभि ,तू ऐसा कर ,बाज़ार से कुछ मीठा ले आ।" अचानक जैसे कुछ सूझ गया।
" आँटी , रहने दीजिये ना ! "
उसके हाथों को धीरे से दबा दिया। " जाने दे उसे , पढ़-लिख कर इतना बड़ा बन गया लेकिन अक्ल नाम का नहीं ! जा , मीठा लेकर आ ! "
वह झुँझलाकर सीढ़ियों की तरफ निकल गया।
" मै जानती हूँ कि तुम दोनों स्कूल के दिनों से दोस्त हो "
" जी , आँटी "
" कितना जान पाई हो अभि को अब तक ? "
" अभि ? वे एक बहुत अच्छे इंसान है। "
" सही कह रही हो। आजकल के लड़को के मुकाबले वह बहुत अच्छा है । शराब- सिगरेट कुछ नहीं पीता, आज तक कभी किसी लड़की को भी नहीं छेड़ा है। "
" जी , आँटी , मै उनसे बहुत प्यार करती हूँ "
" हाँ , तुम दोनों की नौकरी भी अच्छी है "
" जी, इसलिए तो हमारे विचार भी मिलते है "
" हाँ ,तुम दोनों के विचार मिलते तो है लेकिन एक बात है उसकी ..."
" क्या आँटी ,कौन सी बात ?"
" तुम उसके साथ विधिवत विवाह करो ,यह मेरा सपना था लेकिन मै नहीं चाहती हूँ कि तुम उससे बँध कर रहो । क्या तुम लिव - इन में नहीं रह सकती उसके साथ ? "
" क्याs ! आपने यह क्यों कहा , ऐसा तो आज तक किसी माँ ने नहीं कहा होगा " वह भयभीत- सी हो उठी। मानो सांप सूंघ गया था !
" सुनो , उसकी हाथ उठाने की आदत है । वह बात - बात पर , मुझ पर अक्सर हाथ उठा लेता है । माँ हूँ , सहना मेरी क़िस्मत है लेकिन तुम् ...."
" क्या कह रही है आप ? लेकिन वे तो आपसे बहुत प्यार करते है "
" हाँ , वो प्यार भी बहुत करता है मुझे ! इसलिए तो तुमसे कहती हूँ .. " कहते ही अचानक से पसली की हड्डियों में फिर से दर्द जाग उठा ।
--कान्ता रॉय ,भोपाल

परिवार/लघुकथा/कान्ता रॉय


" अरे साहब , क्या हो गया है तुमको , ऐसे जमीन पर ..... ! "
" कौन विमला ? इतने दिन कैसे छुट्टी कर ली तुमने .....आह ! मुझ बुढ़े का तो ख्याल करती "
" उठो ,चलो बिस्तर पर , ज्यादा बोलने का नही रे ! .... मेरा घर-संसार है । यहाँ काम करने से ज्यादा जरूरी है वो । "
" हाँ ,सही कहा , तुम्हारा अपना घर !"
" साहब ,एक बात कहूँ , अब तुम अकेले नहीं रह सकते हो , तुम्हारी बेटी को बुला लो "
" क्या कहा तुमने ,बेटी को बुला लूँ ? "
" हाँ , यही बोला मै तेरे को , तू आज है कल नहीं है । ऐसे में किसी को पास होना माँगता ना ! देखो तो ,कैसे जमीन पर लुढ़का हुआ था "
" इकलौती बेटी मेरी ,जिसको पढ़ा - लिखा ,अफसर बना कर बुढ़ापे का सहारा बनाना चाहा , वो भी तो अब तुम्हारे जैसा ही कहती है विमला "
" मेरे जैसा कहती है , क्या कहती है वो ? "
" कहती है , वो अपने घर को छोड़ कर मुझे नहीं देख सकती है । उसकी पहली प्राथमिकता उसका अपना परिवार है "
" क्या रे साहिब , माँ - बाप ,जिसने जन्म दिया वो बेटी का परिवार नहीं ? "
कान्ता राॅय
भोपाल

मोह-पाश / लघुकथा /कान्ता रॉय


ट्रे में करीने से गिलास लगाये और केतली से चाय भरते हुए दूसरे खाली गिलास पर नजर टिक गई । वह बिलकुल इस गिलास की तरह है ।
कमाने के लिए जब घर से विदा हुआ था । सपनों की गठरी भी बाँध ली ।
कुछ अपने ,कुछ अम्मी के ।
बाबा के सपनें तो गठरी में बाँधना जरूरी था , आखिर खेतों के साथ कर्ज की विरासत भी मिली थी ।
बहन भी कहाँ पीछे रहने वाली थी । फुलकारी के दुपट्टे , कसीदे वाली सुट , नग वाले बुंदों और जाने क्या - क्या फरमाईश बाँध दी उसी सपनों की गठरी में ।
आते वक्त गठरी फूल- सी हल्की लगी थी ।
बड़े जोश-खरोश से निकला था उस वक्त ।एम. ए. फर्स्ट डिवीजन से पास जो हुआ था ।
अच्छी नौकरी , अच्छा जीवन , सब सुख बाबा के चरणों में अर्पण करूँगा । स्वप्न को सुनहरे धागों से बुना था उसनें ।
यहाँ पहुँचते ही स्वप्नों के सौंदर्यबोध में सिलवटें पड़ने लगी ।
नौकरी के लिए धक्के खाते - खाते नौबत भूखमरी तक आ गई । बेरोजगारी में जीवन शून्य-सा था ।
पेट भरने के लिए चाय की दुकान पर काम करना ही उस वक्त आसरा नजर आया और चाय वाला बन बैठा ।
लेकिन पेट .., वो तो साला आज भी नहीं भरता है । कई साल हो गये ।
गाँव लौटना चाहता है । वहीं रहना चाहता है लेकिन , कैसे जाये ,किस मुँह से जाये ।
हर महीने अम्मी की चिट्ठी आती है कि कब आयेगा ?
कैसे क्या हो ? अभी तो टिकट के पैसे का जुगाड़ मुश्किल है । ऊपर से उनके सपनों की गठरी ,जिसकी राह देख रहे है वे बरसों से ।
इस जन्म में क्या घर लौटना हो पायेगा ?
" ओय रमुआ , कैसा है रे ? "
"मै मजे में हूँ साब " उसने अपनी बेकली को छुपाते हुए फौरन जबाव दिया और दूसरे टेबलों पर चाय पहुँचा आया ।
" अरे , उधर कहाँ ? इधर आओ , जल्दी टेबल साफ करो । "
अपरिहार्य परिस्थितियों में खिलौने- सा चालित वह टेबलों से खाली प्याले समेटने लगा ।
उधर अम्मी ,बाबा और बहन की सूरतें उबलते हुए चाय के पानी संग भाप में गड्ड - मड्ड होकर उड़ रही थी । इधर सपनों गठरी कोयले की आँच में जल कर राख हो रही थी । "


कान्ता राॅय
भोपाल

विकास - यात्रा / लघुकथा



"ओ रे बुधिया , अब ये फूस हटाना ही पड़ेगा अपनी टपरी से "
" ई का कह रहे हो बुड्ढा , अब हम सब बिना छत के रहें का ? "
" नाहीं रे , कुछ टीन टपरा जोड़ लेंगे "
" काहे जोड़ लेंगे टीन-टप्पर , क्यु कहे तुम फूस हटाने को ?"
" खेत से आवत रहें तो गाँव के जोरगरहा दुई जन को कुछ कहते सुनत रहे , ओही से कहे है "
" का सुन लिये रहे हो ?"
" कहत रहे कि फुसहा घर गाँव के विकास में घोड़े के लीद पर उगे कुकुरमुत्ते के समान है । "


कान्ता राॅय
भोपाल