मंगलवार, 5 जुलाई 2016

मोह-पाश / लघुकथा /कान्ता रॉय


ट्रे में करीने से गिलास लगाये और केतली से चाय भरते हुए दूसरे खाली गिलास पर नजर टिक गई । वह बिलकुल इस गिलास की तरह है ।
कमाने के लिए जब घर से विदा हुआ था । सपनों की गठरी भी बाँध ली ।
कुछ अपने ,कुछ अम्मी के ।
बाबा के सपनें तो गठरी में बाँधना जरूरी था , आखिर खेतों के साथ कर्ज की विरासत भी मिली थी ।
बहन भी कहाँ पीछे रहने वाली थी । फुलकारी के दुपट्टे , कसीदे वाली सुट , नग वाले बुंदों और जाने क्या - क्या फरमाईश बाँध दी उसी सपनों की गठरी में ।
आते वक्त गठरी फूल- सी हल्की लगी थी ।
बड़े जोश-खरोश से निकला था उस वक्त ।एम. ए. फर्स्ट डिवीजन से पास जो हुआ था ।
अच्छी नौकरी , अच्छा जीवन , सब सुख बाबा के चरणों में अर्पण करूँगा । स्वप्न को सुनहरे धागों से बुना था उसनें ।
यहाँ पहुँचते ही स्वप्नों के सौंदर्यबोध में सिलवटें पड़ने लगी ।
नौकरी के लिए धक्के खाते - खाते नौबत भूखमरी तक आ गई । बेरोजगारी में जीवन शून्य-सा था ।
पेट भरने के लिए चाय की दुकान पर काम करना ही उस वक्त आसरा नजर आया और चाय वाला बन बैठा ।
लेकिन पेट .., वो तो साला आज भी नहीं भरता है । कई साल हो गये ।
गाँव लौटना चाहता है । वहीं रहना चाहता है लेकिन , कैसे जाये ,किस मुँह से जाये ।
हर महीने अम्मी की चिट्ठी आती है कि कब आयेगा ?
कैसे क्या हो ? अभी तो टिकट के पैसे का जुगाड़ मुश्किल है । ऊपर से उनके सपनों की गठरी ,जिसकी राह देख रहे है वे बरसों से ।
इस जन्म में क्या घर लौटना हो पायेगा ?
" ओय रमुआ , कैसा है रे ? "
"मै मजे में हूँ साब " उसने अपनी बेकली को छुपाते हुए फौरन जबाव दिया और दूसरे टेबलों पर चाय पहुँचा आया ।
" अरे , उधर कहाँ ? इधर आओ , जल्दी टेबल साफ करो । "
अपरिहार्य परिस्थितियों में खिलौने- सा चालित वह टेबलों से खाली प्याले समेटने लगा ।
उधर अम्मी ,बाबा और बहन की सूरतें उबलते हुए चाय के पानी संग भाप में गड्ड - मड्ड होकर उड़ रही थी । इधर सपनों गठरी कोयले की आँच में जल कर राख हो रही थी । "


कान्ता राॅय
भोपाल

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