बुधवार, 27 मई 2015

सीप के वजूद में मोती का निर्माण ( लघुकथा )

सीप के वजूद में मोती का निर्माण
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मेघ से उतरी हुई अन्य बूंदों के समान ही सामान्य सी थी वो  । उसमें अगर कुछ था तो  सिर्फ  अपने काम के प्रति प्रतिबद्धता ।
इसी   काम की प्रतिबद्धता ने उसके जीवन के नये  निर्माण मार्ग प्रशस्त किए  ।

सीपी की नजर ने भाँप लिया था उसमें निहित उसके  आने वाले भविष्य को ।

जीवन में नव प्रभात लिए आलोकित करने को समाज में नई चेतना .......आतुर  थी  स्वंयसिद्धा आज  ।
ईश्वर की भेजीे हुई सौगात सीपी  में ढुंढ ली थी सारी संभावनायें उसने  ।

इस अनुपम संयोग ने  एक मोती का निर्माण शुरू कर दिया  । 

गर्भ सी  गर्म तपिश सह रही थी अब वो  बूंद ...बस  !  एक   मोती बनने की चाह में ।

कान्ता राॅय
भोपाल

गरीबी का फोड़ा ( लघुकथा )


मजदूरी करके जितना भी कमाता , आधी से ज्यादा कमाई बेटे  के पढ़ाई के लिये लगाता ।
पिता के फर्ज़ से वह उरिन होना चाहता था ।
गरीबी , सदा जिंदगी को जटिल बनाने के लिये , अपना मोर्चा संभाले रहती थी  ।
बेटे  का मन पढ़ाई  में  कम और आस-पडोस के लडकों में  अधिक लगता था    ।
फिर भी पिता अपनी  आस को रबड़ के भाँति खींच कर पकडे़ हुए था , कि एक दिन बेटा बडा होकर उसका मर्म जान पायेगा और उसके दिन  फिर जायेंगे ।
आज दसवीं का रिजल्ट आने वाला था । सुबह से पूजा घर  में  माँ , बेटे की  सफलता के  लिए प्रार्थना में लगी हुई  थी ।  
रिजल्ट आया ।   सब जकड़न टुट गई  ।
बेटे  ने अपनी हार का ठीकरा पिता की  गरीबी पर जा फोड़ा  ।
गरीबी , कलेजे में  उगे  फोड़े के   मवाद की तरह  बह रही  थी । 

कान्ता राॅय
भोपाल


व्यथित संगम ( लघुकथा )

८. व्यथित संगम ( लघुकथा )

व्यथित मन लिए वो अकेली बैठी थी  घाट पर जाने कब से  ।
समंदर का जोर - जोर से हिलोरे मारना और घाट की सीढ़ियों पर जोर से  आकर अपना सर पटक जाना  .... ऐसा प्रतीत हुआ मानो वो भी व्यथित है  मन के गहन तले तक ।

गोमती  का संगम  समंदर में यहाँ ....हाँ , संगम सुखदायी होता है  ... यही देखा और सुना है अब तक ।
फिर यह अंतर्द्वंद्व कैसा मिलन के क्षण में  ..??

आज घाट पर सन्नाटा था । अजब संयोग यह भी  ..!!!

सिर्फ इस संयासी के और उसके अलावा कोई नही दूर तक ।

वो भी अकेली हो चली थी आज  सबके होते हुए ।
जीवन भर का  स्नेहिल  स्वप्न ...अपनों के तिक्त स्वर ने तोड़ दिया था पल भर में ।
बिलकुल इसी घाट के समान ... सुबह इतनी भीड़ की पैर रखने को जगह नही .... और  दोपहर तक सन्नाटा ..!!!!
इसे तो फिर कल सुबह रौनकों के आने का ऐतबार है पर क्या उसके नसीब में ..??

द्वारकापूरी का यह घाट उसके  दर्द  का सांझा साथी  था । पहली बार जब पति के  साथ मन्नत माँगने आई थी द्वारकाधीश की देहली पर ..तब भी बाँझपन का दर्द लिए थी ।

आज बरसों बाद उम्र के आखिरी पडाव में परिवार को त्याग  बिछुडन के अंतरज्वाला में  वो क्या अभी भी कही जिंदा है ..?

इस घाट पर संगम किनारे बैठी समंदर में अपनी हृदय के चित्कार को समंदर के लहरों के साथ ताल मिला रही थी कि पीछे से आवाज आई --

" माँ ... मेरा मन कहता था कि तुम यहीं मिलोगी ।

कान्ता राॅय
भोपाल

मै धरा अक्रांत ( कविता )

मै धरा अक्रांत ( कविता )
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शक्ति - प्रकृति बन जाऊँ
ना रहू अब पद - तल में
ना करूं  विनम्र विश्राम
हो सुरभित अनंत में

सह कर मन की पीड़ा
हो उठी मै धरा अक्रांत
आज तिरोहित हो कुंज भी
मन माँगे अबके विश्रांत

देव बने आप अपने में
क्यों मुझसे की अपेक्षाएँ
माफ करो स्वंय भार सहो
ना दो मुझे और आपदाएँ

रूदन आहत मै धरा
मन जंगल  हृदय जले
तुम बने उन्मुक्त विलासी
धरा जीवन स्वप्न भूले

अपेक्षा की उपेक्षा किये
अपने मद तुम चूर रहे
हो उन्मुक्त और विलासी
धरा ही जीवन भूल गये

कान्ता राॅय
भोपाल

मन तुम ठहर जाओ ( कविता )

मन तुम ठहर जाओ ( कविता )
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मन तुम ठहर जाओ
ना हो उद्वेलित
ना तुम अधीर हो
वो था वहीं
वो है जहाँ
मन झंकृत ना हो
हृदय गति
जरा धीर धर ले
जोगी जोग के
वेश धर ले
ले चिरन्तर गति
मन को कह
ना अब थिरके
ना उथल पुथल
कोई संसार हो
ज्वालामुखी की ज्वाला
निरंतर मन में लावा 
बहते ही जाना
निरीह मन
व्याकुल पी बिन
अब तु अधीर ना हो
मन तुम ठहर जाओ
ना तुम अधीर हो

कान्ता राॅय
भोपाल

नव स्पंदन ( कविता )

नव - स्पंदन ( कविता )
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मृगतृष्णा कैसी यह
कौन सी चाह है
दिनमान हैै जलता हुआ
ये कौन सी राह है

चल रही हूँ मै यहाँ
एक छाँह की तलाश में
मरू पंथ में यहाँ
कौन सी तलाश है

बाग वन स्वप्न सरीखे
कलियाँ कहाँ कैसी भूले
मन की तलहटी में
प्रिय का निवास है

सुरम्य वादी है वहां
छुपी हुई एक आस है
मुँद कर पलकों को
प्रिय दर्शन की आस है

प्राण की सुधी ग्रंथी में
आजतक हो बसे
जलती रही हूँ निरंतर
चाहत मेरी एक प्यास है

कंठ में नित राग
आतुर गीत विरह के
चिता भूमि सी लगे
प्रिय बिना संसार ये

विधान विधाता ने रचा
रोये निरीह निबल मन
अस्मिता प्रीत की छुपाये
नव - स्पंदन की आस है

कान्ता राॅय

फ्लाईंग किस ( लघुकथा )

फ्लाईंग  किस  ---- ( लघुकथा )
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"क्या हुआ !  आज काम पर नही जाना है क्या ? "-- कर्मवीर को देर तक सोते देख रीमा का दिमाग फिर ठनक गया ।

" अरे , यार बताना भूल गया था । मेरी नौकरी छूट गई कल । अब सोने दो जरा आज , कल की कल सोचूँगा । " - उसने करवट बदल कर तकिया दबा कर फिर से सो गया   ।

" इन्हें तो कामचोरी की आदत लग गई है । कही भी दो तीन महीने से ज्यादा टिक नही पाते है । "--रीमा अब  चिंतित हो चली थी । 

"रीमा ! रीमा ! कहाँ हो ...? "-- घंटों बेफिक्री की नींद से जागकर घर में रीमा को नदारद पाकर सभी संभावित जगहों पर तलाश लिया । कोई सुराग नही पाकर  दुःश्चिंतायें मन में  घर बसा रही थी पल पल  , वो इंतजार में  बेचैन हो उठा था  ।

देर रात घर के बाहर एक लम्बी गाड़ी रूकी । रीमा गाड़ी में बैठे शख़्स को फ्लाईंग किस देते हुए प्रसन्न मन से बाहर निकली   ।

" मेरे काॅलेज का दोस्त है रोहित । उसने मुझे अपने कम्पनी में नौकरी दी है । " - रीमा ने कर्मवीर से कहा ।

" अब मेरी कोई नौकरी नही छूटेगी ।"--कहते हुए कर्मवीर रीमा को अपनी छाती से लगा लिया ।
फ्लाईंग किस का रिवर्स एक्सन हो चुका था । 

कान्ता राॅय
भोपाल

बुलडोजर ( लघुकथा )

बुलडोजर (लघुकथा )
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सुबह से ही अपने काम पर जाने की  हडबडी सबकी  .... आज गुम हो चुकी  थी  । बेजान सी  जिंदगी में  साँस अब भी कहीं बाकी था ...??? 

पानी का नलका ... पीपल के पेड़ तले चबूतरा ...वो लडकों की धमाचौकडी ... अब सन्नाटा ही सन्नाटा दूर तक ....!!!

रमा .. श्यामा .... राधा ... ललिता ... सबकी चुप्पी ...उनकी आँसुओं का दर्द  ...... शहर की छाती पर असर तो हुआ ही था ..... । 

पिछले महीने ही नोटिस भेज दिया था जगह खाली करने के लिये ।

शहर की आबोहवा के बदरंग होने का इल्ज़ाम उन्हीं के मत्थे चढा था ।
शहर क्या चाहती है ... किसको इसकी परवाह थी । 

क्या अपना घर अपने हाथों ही उजाड़ लेना संभव था ...!!!

" मत तोडो ...... मत तोडो । " -- विमला बेतहाशा भागी थी अचानक ....बुलडोजर के चपेट में आते हुए बाल बाल बची  थी । भोला ने एकदम से खींच लिया था उसे ।

बुलडोजर सिर्फ घर पर ही बल्कि जिंदगी पर भी सवार होकर  चली  थी  ।
कलपती हुई आँसुओं की आवाज कब बुलडोजरों ने सुनी है ...!!

कान्ता राॅय
भोपाल

कुवाँरी देवी ( लघुकथा )


उसे रोना आ रहा था। भरी-भरी-सी आँखें कह रही थी कि वो देवी नही, वो मुन्नी है ।
उसे रानो और शन्नो के साथ खेलने जाना था बाहर।
ये लोग चुनरी ओढाय उसे कहाँ बिठाय दिये हैं।
" माँ , मै देवी नही रे , तेरी मुन्नी हूँ .. काहे ना चिन्हत मोरा के। "
दर्शन की रेलम-पेल में उससे बेखबर बिसेसर और धनिया चढावे के रकम की खनक समेटने में लगे थे।
माइक वाले ,पंडित ,हलवाई सहित पूरे गाँव का भाग मुनिया ने संवार दिया था।
" मुनिया तो सब दिन देवी बन कर नहीं रह पाएगी , बड़ी होने से पहले कुछ सोचना होगा " बिसेसर धनिया की तरफ चिंता से देखा।
" जो करना है करो ,मुझे न सुनाओ " खुरदुरे चटाई पर सो रहे चारों बच्चों को देखते हुए धनिया की आँखें सहसा उमड़ आई ।
" अब इस देवी का समाधिस्थ होना जरूरी है । "-- कहकर बिसेसर बाहर खेत की ओर निकल गया .

कान्ता राॅय
भोपाल

ममता का सृजन ( लघुकथा )

ममता का सृजन (लघुकथा )

देवता, गंधर्व , किन्नर सब देवी की स्तुति गान कर प्रस्थान कर चुके थे । महिषासुर के साथ ही अन्य सभी दानव गण निष्प्राण हो रणभूमि में आच्छादित हो रहे थे ।

कुछ देर पहले ही जिस आकुलता से देवी ने मार गिराया था जिन दानवों को उन्हीं दानवों के लिए देवी  हृदय में कोलाहल सा मच गया ।
देवी अब ममता के वशीभूत हो चली थी ।
समस्त सृष्टि की वो जननी थी ।देव हो या दानव ..... सब संतान उसी के ।
और पल भर में ही सृष्टि फिर दानवों के अधीन हो उठी  ।

कान्ता राॅय
भोपाल

मुंडन जिंदगी का (लघुकथा )

मुंडन जिंदगी का ( लघुकथा )

परम्परा के मुताबिक ही जनेऊ कर्म सम्पन्न हुआ । मुंडन के वक्त पीछे बडा सा बालों का गुच्छा छोड़ दिया गया । वो गिडगिडाता रहा कि मेरा पूरा मुंडन कर दो । ये बालों के गुच्छे मत छोड़ो  । स्कूल कैसे जाऊँगा ।
परम्परा थी .... वो एक जरूरी नियम था समाज के लिए ... धर्म के लिए ।

स्कूल गया बच्चा आज शाम तक घर नहीं पहुँचा ।  पहुँची तो उसका संदेश कि ट्रेन की पटरी पर जिस बच्चे की लाश मिली है उसके  स्कूल के  बस्ता के  डायरी में यही पता मिला है ।
बच्चे की जिंदगी का भी मुंडन हो चुका था

कान्ता राॅय
भोपाल

निर्भया का निर्वाह (लघुकथा )

निर्भया का निर्वाह ( लघुकथा )

" वो निर्भया है ना ..सोनू की मम्मी ! "

" अरे हाँ , वही तो है ... देखो तो हाथों मे चुड़ी और माँग मे सिंदूर .... लगता है .. शादी हो गई उसकी ..! "

" कौन है इसका निर्वाह करने वाला । इतना  बडा  दिल वाला कौन निकल गया अपने यहाँ ? "

" हो गई शादी यही गनिमत समझो  .... वही  राधेश्याम का छोरा .... निठल्ला बैठा रहता था जो  बीच चौराहे  पर ....!  जिसकी कही शादी नही हो रही थी उसी ने अपनाया है उसे । निर्भया के बाप ने अपना मकान उसके नाम किया है । तब जाकर ....!!!
ऐसी लडकियों को निठल्ले ही तो  अपनाते है । "

कान्ता राॅय
भोपाल

पिघलता रेगिस्तान ( लघुकथा )

पिघलती हुई रेगिस्तान ( लघुकथा )
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दिल की जलन से अधिक ताप तो स्वंय आग में भी नहीं ।
वो बगावत कर चुकी थी अपने ही कबीलों के साथ । बाहरी  समुदाय के   छोरे को  मीत जो बना  बैठी  थी  ।

गर्म हवा के थपेड़ों नें  जीने की अभिलाषा छीन ली । अब जिंदगी की हार निश्चित है ...सोच कर बैठ गई गर्म रेत के टीले पर .... अब और ना भाग सकेगी वो ।

कबीलों के  समूह का शोर अब नजदीक हो  चला  था । उनके हाथों में सजे भाले भी उसकी खून के  प्यासे है  ।

आँख मुँद ली और चेहरे को रेत में छुपा कर घुटने के बल  बैठ गई   ।

सहसा दो हाथों ने उसे सहारा दिया । वो हाथ ममता और स्नेह के थे । रेगिस्तान अब पिघल रहा  था  ।

पिता ने भी अब बगावत कर दी थी कबीलों के खिलाफ़ बेटी की शादी करके ।

कान्ता राॅय
भोपाल