बुधवार, 27 मई 2015

कुवाँरी देवी ( लघुकथा )


उसे रोना आ रहा था। भरी-भरी-सी आँखें कह रही थी कि वो देवी नही, वो मुन्नी है ।
उसे रानो और शन्नो के साथ खेलने जाना था बाहर।
ये लोग चुनरी ओढाय उसे कहाँ बिठाय दिये हैं।
" माँ , मै देवी नही रे , तेरी मुन्नी हूँ .. काहे ना चिन्हत मोरा के। "
दर्शन की रेलम-पेल में उससे बेखबर बिसेसर और धनिया चढावे के रकम की खनक समेटने में लगे थे।
माइक वाले ,पंडित ,हलवाई सहित पूरे गाँव का भाग मुनिया ने संवार दिया था।
" मुनिया तो सब दिन देवी बन कर नहीं रह पाएगी , बड़ी होने से पहले कुछ सोचना होगा " बिसेसर धनिया की तरफ चिंता से देखा।
" जो करना है करो ,मुझे न सुनाओ " खुरदुरे चटाई पर सो रहे चारों बच्चों को देखते हुए धनिया की आँखें सहसा उमड़ आई ।
" अब इस देवी का समाधिस्थ होना जरूरी है । "-- कहकर बिसेसर बाहर खेत की ओर निकल गया .

कान्ता राॅय
भोपाल

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