बुधवार, 27 मई 2015

पिघलता रेगिस्तान ( लघुकथा )

पिघलती हुई रेगिस्तान ( लघुकथा )
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दिल की जलन से अधिक ताप तो स्वंय आग में भी नहीं ।
वो बगावत कर चुकी थी अपने ही कबीलों के साथ । बाहरी  समुदाय के   छोरे को  मीत जो बना  बैठी  थी  ।

गर्म हवा के थपेड़ों नें  जीने की अभिलाषा छीन ली । अब जिंदगी की हार निश्चित है ...सोच कर बैठ गई गर्म रेत के टीले पर .... अब और ना भाग सकेगी वो ।

कबीलों के  समूह का शोर अब नजदीक हो  चला  था । उनके हाथों में सजे भाले भी उसकी खून के  प्यासे है  ।

आँख मुँद ली और चेहरे को रेत में छुपा कर घुटने के बल  बैठ गई   ।

सहसा दो हाथों ने उसे सहारा दिया । वो हाथ ममता और स्नेह के थे । रेगिस्तान अब पिघल रहा  था  ।

पिता ने भी अब बगावत कर दी थी कबीलों के खिलाफ़ बेटी की शादी करके ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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