शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

बंदिनी /लघुकथा


"आओ मेरे पास, मैं भव्य हूँ ,सोने का हूँ , तुम्हें रोज मोती के दाने दूंगा। "
" नहीं ,मैं नहीं आऊँगी तुम्हारे पास बंधने को , मुझे मेरी उड़ान प्यारी है। "
" देखो जरा , अपने ऊपर ,वो दूssर गिद्ध ,तुम पर नज़र लगाये हुए है , जरा सा चुकी कि झपट कर तुम्हें ले जायेगा । "
"अच्छा ? "
" मैं तुम्हें रानी बना कर रखूँगा। "
"नहीं , मुझे रानी नहीं बनना ! मैं स्वतंत्र उड़ान भरते हुए, लड़ते हुए , वीरांगना की मौत पसंद करुँगी बजाय तुम्हारी बंदिनी के। "
"अच्छा ! मैं चला , शुभकामना तुम्हें ! "
"कहाँ जा रहे हो अब ? "
"मेरे समस्त सोने के सलाखों को गलाकर तुम्हारे लिए उड़ने वाला घोडा जो बनाना है ! "

कान्ता रॉय
भोपाल



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