शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

चक्कर/लघुकथा


वह रोज इसी वक्त आॅफिस के लिए निकलती थी । खूबसूरत ,कमाऊ और अमीर घर की शहजादी ····! मनोज की तो पहले दिन ही उस पर नजर ही अटक गई थी ।
तीन साल से वह नौकरी के लिए भटक रहा है , अच्छी डिग्री ना होने के कारण हर जगह से मायूसी ही हाथ आई थी अब तक ।
अगर ये हाथ आ गयी तो गाड़ी ,बंगला , और बैंक बैलेंस सब अपने क़दमों में ! " शानदार जिंदगी जीने के ख्वाब इसी से पूरे होते नजर आये ।
बालों पर कंघी फेर, पास ही खड़ी बाइक के शीशे में अपना चेहरा देख , कन्धों को उचकाते हुए ,एकदम सधे हुए चाल में आगे बढ़ते हुए मुस्कुराते हुए बुदबुदा उठा , "बस जरा सा उससे चक्कर चलांना है , अब यहाँ तो मेहनत करनी पड़ेगी बाबू ! चल ,बढ़ आगे, सुना है कोशिश करने वालों की हार नहीं होती है "

कान्ता राॅय
भोपाल

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