गुरुवार, 10 मार्च 2016

अनकहा अनुबंधन / लघुकथा


उसके होठों से संगीत की धारा बह रही थी । आँखों में झिलमिलाती , हीरे की कनि सी ,स्वप्नों के कणिकाएँ आज चमक में उन्मादित हो गई । जब से सुना था कि मोहन वापस आ रहे है विदेश से , वह जैसे मन्त्रमुग्ध सी हो चली थी । दिखती कहीं , पर होती कहीं और थी ।
जाने से पहले उनके हाथों पहनाई , सगाई वाली अंगूठी , दोनों के बीच एहसासों का अनकहा अनुबंधन था । इतने सालों में एक बार भी ना उतार पाई थी , मानों अंगूठी में नग नहीं , वह अपना दिल जड़ कर रख गये हों ।
वे बचपन के साथी , साथ ही पले -बढ़े थे । दोनों के पिता व्यवसाय में साँझेदारी निभाते हुए , इस बडे़ घर में भी साँझेदार थे । उन दोनों की दोस्ती भी , उसकी प्रीत की तरह अटूट थी ।

बाहर गाड़ी की हॉर्न बजी , और घर में हलचल बढ़ गई । शायद वे आ चुके है । सपनों की डोली ,चढने की आकुलता में ,वह दौड़ कर दरवाजे की ओर बढ़ी । सामने नजर पड़ी । दिल धक्क से रह गया । गुलाबी साड़ी में ,बच्चे को गोद को में लिये ,साथ में यह कौन है , कहीं शादी तो .......!
हताश ,स्तब्ध , अपने प्रारब्ध से घबराई , जले हुए पदार्थ की अवशेष सी वह राख हो , एकदम जमीन पर बिखर गई ।
सब मुंह ताकते ही रह गए। उसने दौड़ कर उसे बाँहो में थाम लिया । घरवाले भी जड़ हो चुके थे ।

" क्या हुआ आप सबको ? अरे ,ये प्रिया भाभी है , मेरे दोस्त की पत्नी । मेरे साथ ही भारत आई है । कल इनके घर पहुँचा आऊँगा "


कान्ता राॅय
भोपाल

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