गुरुवार, 10 मार्च 2016

टॉमी ( लघुकथा )


"वाह शरद जी, आप तो पहुँचे हुए तीरअंदाज़ निकले! मान गये उस्ताद!"

"मतलब? क्या उस्तादी की मैने? "

"अरे वही, अपनी कार्यकर्ता कुसुमा देवी जी वाली केस में जो तटस्थता दिखाई है आपने, ना सही का साथ दिया, ना ही गलत का! यानि आपके तो अब दोनों हाथ में लड्डू है।"

"यह सब फालतू के चर्चे है, छोडिए कोई दूसरी बात कीजिएI"

"फालतू का चर्चा कहाँ, आप तो छा गये है! सुना है कि, विरोधी पार्टी की वह कार्यकर्ता भी अब आपके गुण गा रही है।"

"अब चुप भी रहिये मियाँ, यह राजनीति का रंग है, टिके रहने के लिए वक्त के हिसाब से बदलते रहने की यहाँ जरूरत होती है।"

"लेकिन, इन सबमें आपकी अपनी कार्यकर्ता कुसुमा देवी का क्या? वह तो आप पर भरोसा करती है। आपकी इस तटस्थता से, क्या उन पर असर नहीं पडेगा? "

"अरे वो? ऊँह, कोई असर नहीं.... वहाँ देखिए, दरवाजे पर बँधा मेरा टॉमी, दूध-रोटी और जरा सी पुचकार ....,
बस यही खुराक अपनी कुसुमा देवी का भी हैI"


कान्ता रॉय
भोपाल

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