शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

बहकती गुलाल का ठौर / लघुकथा


भाँग छन रहे थे । रंग और अबीर से हवा भी रंगीन होकर इतरा रही थी ।
मंजीरे की थाप और ताल पर बहकते कदम ,होली के जश्न में बूढ़े ,बच्चे सब मस्त कि अचानक उसने उर्मिला की बाँह पकड़ी और घसीटते हुए गली के पिछवाड़े की तरफ ले आया ।
वह भी जैसे जाने को तैयार ही थी । उसके बदन से उठती उसकी खूशबू को पहचान वह प्रीत में डूबी , सुध - बुध बिसराये उसके साथ चली आई ।
दोनों एक दुसरे के बाहों में , गीले बदन रंग से सराबोर हो सिमटे हुए थे ।
पावों की नीचे जमीन चिकनी सी हो उठी और उनका फिसलना साथ - साथ ही हुआ । दुनिया से बेपरवाह जागती आँखों में सपनों का झूलना , मनचाहा रतन , दोनों पा रहे थे कि अचानक ढोलक के थाप रूक गये ।
गली में उठता शोर करीब आता हुआ सुनाई दिया । वे हड़बड़ा उठे ।
बाहों की जकड़ काँप कर ढीली हो, छूट गई ।
नीचे पड़ी ओढ़नी को उसने उठाया और उर्मिला के सिर को ढाँक दिया ।
उसे शायद मालूम था कि अगले पल क्या होने वाला है । आखिर उर्मिला यहाँ के पार्षद की बेटी थी और वह बेहद मामूली परिवार का लड़का ।
भीड़ की दर्जनों आँखें उन पर पड़ने से पहले , दो आँखें ममता भरी चमक उठी ।
" माँ , हमें बचा लो " उर्मिला के हाथ पैर बर्फ से ठंडे हो चुके थे ।
" वादा करो कि जब तक यह तुम्हारे लायक नहीं होता है तुम इससे कभी नहीं मिलोगी "
" आँटी ,मै वादा करता हूँ कि अब उर्मिला के लायक बन कर आऊँगा " वह उस ममतामयी के पैरों पर झुक गया ।
" यहीं लेकर आया था रामलोचन का छोरा उर्मिला को ... " भीड़ का शोर उछल कर सामने आ गया ।
" वो देखो ...., अरे भाभी आप यहाँ क्या कर रही है ......? "
" लाला , ये अबीर ,गुलाल बहकाने वाली चीजें है , चक्कर खाकर गिर पड़ी थी यहीं , इस रामलोचन के छोरे ने मुझे और मेरी जिंदगी को भटकने से बचा लिया । "

कान्ता राॅय
भोपाल

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