" हमारी इज्ज़त के साथ नहीं खेल सकती है इस तरह " पिता का गम्भीर स्वर अब तक कानों को पिघला रहा था ।
उसकी नजरें झुकी हुई थी । चारों ओर बस धुँध और दूर जाती हुई जिंदगी ।
उसकी नजरें झुकी हुई थी । चारों ओर बस धुँध और दूर जाती हुई जिंदगी ।
ऐसा लग रहा था जैसे वह हवा - पानी और धरती से आज बेदखल हो रही थी ।
जिंदगी मानो साँप सीढ़ी का खेल हो गया । इस प्रेम ने कहीं का नहीं छोड़ा !
ना सीढ़ी चढ़ पायी , ना ही नीचे गिर पाई ।
ना सीढ़ी चढ़ पायी , ना ही नीचे गिर पाई ।
बचपन से किताबों में सद्भाव पढ़ते आई थी लेकिन , प्यार परवान चढ़ते ही , सद्भाव को भयानक जीव -जन्तु चबा - पचा गये और अपशिष्ट रूप में जाति-बिरादरी सामने आ गये।
सद्भाव वाला अध्याय , किताबों के पन्नों में ही डर के मारे दुबक कर सिमट गया ।
तब ईश्वर याद आये ।
ओह ! आज तो ईश्वर भी लाचार लगे । वरदान देने की ताकत तो अब उनके पास भी नहीं बची थी ।
तब ईश्वर याद आये ।
ओह ! आज तो ईश्वर भी लाचार लगे । वरदान देने की ताकत तो अब उनके पास भी नहीं बची थी ।
परिवार या प्यार , मुकाबला बड़ा नाजुक था , अंततः उसने खुद को हराकर संस्कार को जीताने की तरफ अपने कदम बढ़ा दिये ,
क्योंकि समाज की चौडी छाती का सिमट जाना अच्छी बात नही होगी।
कान्ता राॅय
भोपाल
भोपाल
कोई टिप्पणी नहीं :
एक टिप्पणी भेजें