शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

मेरी माँ तो है ना ! / लघुकथा




नन्हीं-नन्हीं अँगुलियों में सुई -धागे थामे रंगीन नगों को मोतियों के साथ तारतम्य से उनको पिरोती जा रही थी।
भाव -विभोर हो बार -बार निहारती , मगन होकर परखती , कभी उधेड़ती , कभी गुंथती , फिर से कुंदन के रंगो का तालमेल बिठाती ।
धम्मम ......... से पीठ पर सुमी ने हाथ दिया तो एकदम से चौंक उठी । हाथ से छूटकर मोती ,नग ,कुंदन सब यहाँ -वहाँ बिखर गए।
" सुम्म्मी ........तुम ! देखो ना , तुम्हारे कारण सब बिखर गए , मुझे फिर से सबको गूंथना होगा। " हाथ में उलझी- सी बिखरी हार को देखते हुए वो निराश हो उठी।
" वाह ! कितना खूबसूरत है ये , अपने लिए बना रही हो ? " आधी - अधूरी बनी हार पर नज़र पड़ते ही उसके सौंदर्य से अभिभूत हुई ।
"नहीं "
"तो फिर किसके लिए इतना जतन कर रही हो ? "
" माँ के लिए , उनके लिए दुनिया का सबसे सुन्दर हार बनाना चाहती हूँ "
" क्याsss , माँ के लिए ? उस सौतेली माँ के लिए जो बात -बात पर तुम्हें सताती रहती है ! "
" सताती रहती है तो क्या हुआ , वो मेरी माँ तो है ! " प्रौढ़ होती बचपन की डबडबाई पनीली आँखों में सहसा हज़ारों नगों की रंगीनियाँ झिलमिला उठी।


कान्ता रॉय
भोपाल

                           

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