गुरुवार, 19 मई 2016

डॉ आनंद के मन का ठहराव , आत्मबल को दृढ़ रख संयम से जीना सिखाती है यह पुस्तक -- कान्ता रॉय

पुस्तक समीक्षा --कांता रॉय ,भोपाल

आनंद कही - अनकही
लेखक -डॉ अरविन्द जैन
प्रकाशक -- अक्षर विन्यास
एफ-6/3 , ऋषि नगर ,उज्जैन
प्रथम संस्करण 2015
मूल्य :450
ISBN 978-81-928087-4-1

डाॅ अरविन्द जैन जी   मध्यप्रदेश  शासन के आयुष-विभाग  में  वर्ष 1974 से  2011 तक  शासकीय  सेवा  में  कार्यरत  होने  के  उपरांत   सेवानिवृत एक  व्यवहारिक  धर्म  और  न्याय  के  लिए  सचेत  एक  बुद्दिजीवी  के  रूप  में  जाने  जाते  है  ।  पहली  बार  उनसे  एक  पुस्तक  के  विमोचन  के  अवसर  पर  मिली  थी  और  उनके  सहज  व्यक्तित्व  से  प्रभावित  हुए बिना  ना  रह  सकी , लेकिन  यह  कहने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि वास्तव  में  उनको मैंने  इस  पुस्तक  से अर्थात  उपन्यास " आनंद  कही - अनकही " के द्वारा ही जान पायी हूँ  । जितने  सरल  वे  बाहर  से  है  उससे  कहीं  अधिक  सरल और सहज व्यक्तित्व का  हिस्सा उनके  अंतर्मन  में पोषित  है  यह मैंने उनकी  लेखनी से जाना  है ।
पेशे से चिकित्सक होने के कारण उन्होंने समाज की विसंगतियों को करीब से देखा  है और उन्हीं अनुभवों के  ताने  - बाने से रचा  यह उपन्यास है “ आनंद कही -अनकही ”।
डॉ  आनंद के  जरिए  इस  किताब में  वे  स्वयं को  ही पन्ने -दर -पन्ने खोलते  हुए  प्रतीत  होते  है । ऐसा लगता  है  कि वे वर्षों  से  मन  में  उमड़ने -घुमड़ने  वाली  बात  को इस  उपन्यास  में  चित्रित -वर्णित कर  दिया  है  । प्रायः सभी  पात्र और  स्थितियां ऐसी  है जो  पहचानी  जा  सकती  है ।  इस  पुस्तक  में जीवन के बड़े सवालों से मुठभेड़  दार्शनिक मुद्रा , जैन-धर्म से विश्लेषणात्मक हुई है । निहायत स्वाभाविक वस्तुपरक   और  मूलतः गैर-रोमांटिक दृष्टि  से जीवन  की  बहु-विधिता को  आपने  धैर्य  से  बुना  है 
मध्यवर्गीय सरोकार से जुड़ा डॉ आनंद की कहानी कई मोड़ से गुजरकर निकलती है ।जैन - धर्म के प्रति संवेदना और उसका प्रभाव पंक्ति -दर पंक्ति - संवाहित होता हुआ दिखाई देता है । 
डाॅक्टर आनंद के जीवन में नौकरी ना मिलने के  हताशा से शुरू हुई यह जीवन - गाथा-सी नौकरी मिलने , नौकरी के दौरान नयी- नयी विषम परिस्थितियों का ताना - बाना लिए  हुए  है जो सेवानिवृत्ति के  बाद  की  दिन -चर्या पर जाकर खत्म हुआ है , अर्थात यह पुस्तक डाॅ आनंद के कर्मभूमि बनाम रणभूमि पर एक जीवन - संग्राम का दस्तावेज साबित होता है ।

डॉ आनंद का जीवन को परित्याग करने की मनोदशा से शुरू हुई यह कहानी पिता - पुत्र के बीच के सम्बंधों को भी व्याख्यादित करता है । प्रश्नोत्तर सा कुछ प्रसंग कहीं - कहीं धर्म -ग्रंथ को पढ़ने को आभासित करता है । जैन -साहित्य  को  उच्चतम  ग्रन्थ  बताते  हुए , प्रथमानुयोग ग्रन्थ से  जीवन -प्रेरणा लेकर उपन्यास  का एक मध्यमवर्गीय परिवार अपने बेटे से बहुत उम्मीदें लगाए रहता है और उसके  भटकाव  को  लेकर मन  से  कहीं  बहुत  डरा  होता  है   ,इस  मनोदशा  को  उभारते  हुए उपभोक्तावादी  संस्कृति  व्  मतलबपरस्ती सरोकार  का  चित्रण  है । .ईश्वर पर, धर्म पर  आस्था जीवन  के  विपरीत परिस्थिती  में  भी  मन  को  ठहराव  देती  है यही  पुस्तक का सार है ।  

काॅलेज में एडमिशन लेने की जद्दोजहद और दोस्तों के संग - साथ में सही - गलत सभी काम किये जो काॅलेज जीवन का मूल हिस्सा होता है । काॅलेज की पढ़ाई खत्म होने के बाद नौकरी ना मिलना और  रूपयों के इंतजाम में मानसिक द्वंद्व भी खूब उजागर हुआ है । पढ़ते हुए नौकरी की चिंता , नौकरी मिली तो पोस्टिंग कहाँ देंगे उसकी चिंता !
आपकी यहाँ पंक्तियाँ साकार हो उठी है कि " मनुष्य चिंताओं का चलता फिरता पुंज है । चिंतायें अनंतानंत है । "
ग्रामीण -क्षेत्र में पोस्टिंग ,  वहाँ की सामाजिक  विषमताओं से भरी जिंदगी और णमोकार मंत्र का जाप , यहाँ भी आपने धर्म का डगर थामे रखा ।
इस उपन्यास की अंतर्वस्तु की पड़ताल की जाये तो शासकीय काम-काज पर आम  जनता के  नज़र  पर  पड़ा झीना आवरण तार - तार हो सकता है ।
डाॅक्टरी जीवन की विषमताओं में केस खराब होने पर पुलिस का झंझट बड़ा चौंकाने वाले  तथ्यों को आपने यहाँ उकेरा है ।
अधिकारियों  की  मनमानियों का  कच्चा - चिटठा खोलती  दवाओं  की  खरीद  -फरोख्त का  हिसाब -किताब ,अधिकारियों  से  जबाब - तलब , पेपर ,अभिलेख और   रिकार्ड में  उलझता -सुलझता कई  प्रकरण के  साथ  घरेलु  जीवन का  द्वन्द उपन्यास  में  कथा -तत्व का  माध्यम  बनती  है । बम्हनी ,नरसिंहपुर ,सागर , अनंतपुरा ,चांदपुर ,सागर रीवा  संभाग ,जबलपुर के  आस-पास  घुमती यहीं  की  मिटटी में  बसी संस्कार  की  खुशबू को ये  कथा  सहज  जीवन  में  व्यख्यादित करती  है

राजनीति और प्रशासन व्यवस्था पर भी आपने खूब तीक्ष्णता से कलम चलाई है । डाॅक्टरी पेशा में गला काट प्रतिद्वंद्विता और साजिशों का सिलसिला डाॅ पराशर , कंपाउंडर गुरु , डॉ  वि पि  तिवारी , महिला चिकित्सक  के प्रसंग के माध्यम से खूब संदर्भित किया है ।
सफलता अपने पीछे  दुश्मनी और साजिशों को भी लेकर आती है ।  महिला- सहकर्मी का आरोप - प्रत्यारोपण का दौर , भले अपनी सच्चाई के कारण डाॅ आनंद बरी  हो  जाते  है  सभी  प्रकरण  से  लेकिन ये सब  बातें  मन  के  कहीं  अन्दर  तक  उनको  झकझोड़  जाता  है ।
जहाँ डाॅक्टर का पेशा समाज के सेवा-भावना से जुड़ा है वहाँ प्रतिद्वंदियों  , कार्यक्षेत्र  में  साजिशों  पत्रकारिता पर  सवाल  उठाते  हुए  अखबारों को हथियार बनाकर  पत्रकारिता के माध्यम से घात - प्रतिघात की दास्तान है यह । जीवन में वीभत्सता व कौतुकता के  मिश्रण के बिना बात नहीं बनती है ।
एक के बाद एक घटनाओं का चित्रण , कैसे सरकारी नौकरी में रूढ़िवादी परिवेश में एक  चिकित्सक  ने  विषम परिस्थितियों से सामना किया , किस तरह स्वंय को बचाये रखा ।
नौकरी  और  परिवार  का  संयोजन  करते  हुए  पत्नी का  बीमार  पड़ना   और नवजात शिशु के मृत्यु -प्रसंग मन को विहला गई एक दम से ।  इतनी वेदना थी इन पंक्तियों में कि कई घंटों तक इसका असर दिलो- दिमाग पर  कायम रहा ।
सीमित तनख्वाह में  पत्नी का असंतोषजनक  रवैया  आनंद  के  प्रति  उनके मन का विचलन और ऐसे वक्त में  डॉ  आनंद  के  मन  का  ठहराव  , आत्मबल को  दृढ़ रख  संयम से जीना सिखाती है यह पुस्तक ।
टिकट- कलेक्टर का प्रसंग भी बहुत प्रेरक है यहाँ । छोटे भाई  प्रमोद  का बिना टिकट सफर करने पर पैनल्टी लगना और डाॅ आनंद के नाम सुनते ही  टिकट कलेक्टर का सकारात्मक संवाद हृदय में अच्छाई के प्रति सम्बल देता है ।
रूपया कमाना आसान है पर सम्मान कमाना मुश्किल है  ।
भारतीय शाकाहार परिषद , सागर की स्थापना एक  और  बड़ी  जिम्मेदारी  और  ऐसे  में  पारिवारिक  असंतुलन जैसी  अपने  आस-पास  की  दैनिक जीवन  की  कहानी  हो  को  उकेरा  है .। पति -पत्नी  की  नोक-झोक  का भी  सुन्दर  उल्लेख  देखने  को  मिला  है  . कहीं -कहीं  मुहावरों  का  प्रयोग पुस्तक  में  भाषाई  कौशल  को  निखारता  है .
इस औपन्यासिक वृतान्त में कोमल मानवीय संवेदना एवं गरिमा का उद्दाम चरित्र की उपस्थिति है ।
दार्शनिक- भाव में धर्म के प्रति संवेदनाओं का निर्वाह करके इस किताब को उनकी शासकीय सेवा में  चिकित्सकीय जीवनकाल  में आये विडंबनाओं को , छुपे हुए सफेद पोश अधिकारियों में  नैतिक मुल्यों का हास को भी खूब पोल-खोल हुई है । पद का दुरूपयोग विस्मयकारी छुद्र -मानसिकता को उधेड़ने का सफल प्रयास हुआ है । पदाधिकारियों के क्रिया -कलापों का  विस्तारपूर्वक चित्रण देखने को मिला ।
यानि द्वंद्व तो है यहाँ पूरे किताब में लेकिन इस शैली में पढ़ी हुई यह मेरी पहली पुस्तक अर्थात उपन्यास  होगी ।  मैने अब  तक यात्रा - वृतान्त में ऐसी शैली  देखी थी । " डॉ आनंद " नाम का दोहराव कथा में कई बार  देखने  को  मिला  है ।पिता द्वारा बेटे को बार - बार  डाॅ आनंद कहते हुए संवादों में रोपित करना कई  जगह  नाटकीयता  का  आभास भी  दिला  जाता  है । डाॅ आनंद का  जीवन  प्रेम-प्रसंग से अछूता रहना खला है । जवानी के दिनों में खिलंदरी -स्वभाव  से अछूता यह पात्र अत्यंत  अनुशासित , बेहद शातिराना तरीके  से  अपना कुछ बताने से बचता ,निकलता-सा आभासित हुआ है  ।आत्मकथात्मकता के  निर्वाह में लेखक कहीं भी डॉ  आनंद  का कमजोर पक्ष नहीं उकेरता है जो इस पुस्तक के यथार्थता को संदिग्ध करता है । शैली में कथ्य को  उपदेशात्मक बनाते हुए  लेखन  के साथ  कई जगह कमजोर  होते भी दिखाई दिये है । यह लेखन एक ही नजरिए का पोषक है जो साहित्य में निषेध  है ,  यहाँ डॉ आनंद को अधिक  खोलने की जरूरत थी ।
उपन्यास का  अंत तक  के  सफ़र  में  पिता ,माता  और  पत्नी  का  बिछोह  से  गुजरते हुए  डॉ  आनंद  को  अकेलेपन में लेखन ,पठन-पाठन , आयुर्वेद के  लिए  अपना  अनुदान और  अपने  घर  में  संगृहीत पुस्तकों  का  खजाना  अर्थात एक  समृद्ध  पुस्तकालय  को निर्मित  कर  जीवन  की  नई दिशा  देने  की  कोशिश सराहनीय  है जहां  बौद्धिकता  अपने  चरमोत्कर्ष पर  पहुँच  जाती  है ।जीवन को  परखता , सैद्धान्तिकता को पकड़कर भारतीय  सास्कृति और  परम्पराओं का  अनुसरण करने  वाले  इस  उपन्यास  में आपत्तिकाल से  जूझता  , मैंने  जीवन  का एक  लंबा  संघर्ष पाया  है  जो  प्रेरणात्मक है ।मेरा  मानना  है  कि ये जीवन  की  कसौटी  हिंदी -साहित्य में अपनी  तरह  की   अलायदा पुस्तक है जो पाठकों की  कसौटी पर  भी खरी   उतरेगी ।

श्रीमती कान्ता राॅय
एफ -२, वी-५
विनायक होम्स
मयूर विहार
अशोका गार्डन  
भोपाल 462023
मो .9575465147
roy.kanta69@gmail.com




बुधवार, 11 मई 2016

मेरी दूसरी शिक्षक " मेरी माँ " / यादों की मीठी खुशबू

गतांक से आगे--
मेरी दूसरी शिक्षक " मेरी माँ "
मेरे जीवन में शिक्षकों की भूमिका हमेशा से संवेदनशील रही है । उन सबका प्रभाव मेरे मन - मस्तिष्क में अब तक बना हुआ है । पापा , माँ , मेरे ट्यूटर , रानी मिस जो मेरे स्कूल की वाॅइस प्रिंसीपल भी थी , उनसे मेरा बहुत गहरा लगाव रहा है , उनके साथ स्कूल के अलावा बाहर भी जाया करती थी । हमारी प्रिंसीपल वैदेही सिंहा का भी बहुत बड़ा हाथ है मेरे व्यक्तित्व निर्माण में । शादी के बाद ससूर जी , मेरे पति और लेखकीय कर्म में पूज्यनीय सर जी ( योगराज प्रभाकर ) ।
सभी शिक्षक मेरे जीवन में अलग - अलग मोड़ पर मुझे सार्थक दिशा दिये है । उन सभी से सम्बंधित संवेदनशील यादों को लिपीबद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ जो कई कड़ियों में होगा ।-----
किशोरावस्था में माँ की जगह पिता का सामीप्य अधिक पाने के कारण पापा के बाद मै माँ को अपनी दूसरी शिक्षिक मानती हूँ । मेरी माँ एक खूबसूरत महिला होने के नाते कुशल गृहणी थी । गृहकार्यों के अलावा वे सिलाई ,कढ़ाई और बुनाई में पारंगत थी ।
असीम ऊर्जा से भरपूर मेरी माँ कैसी भी टिपीकल बुनाई उनके सामने आ जाये वे आँखों ही आँखों में खड़े - खड़े डिजाइन को भाँप लेती थी और घर में आकर तुरंत उतार लेती थी ।
इसी संदर्भ में एक वाकया याद आ गया ।मै शायद ११ वर्ष की थी जब दीदी ससुराल से पहली बार कोलकाता आई हुई थी । महीने भर के लिये आई थी । हमारे बिल्डिंग में पड़ोस की एक काकी-माँ जो कश्मीर घूम कर वहां से एक लाल रंग का क्रोशिये की शाॅल लेकर आई थी । दीदी ने देखते ही जिद कर ली कि उनको वैसी ही शाॅल चाहिए ।
माँ के लिये बड़ी मुश्किल हुई । दीदी की बेस्ट फ्रेंड सुषमा जीजी ने काकी-माँ से येन- केन- प्रकारेण कुछ देर के लिये शाॅल लेकर आई । काकी-माँ को लगा कि कुछ मिनटों के लिये दिखाने से भला क्या होगा !
लेकिन माँ ने रात - भर जागकर डिजाइन उतार ली और दीदी के ससुराल जाने से पहले सिर्फ पन्द्रह दिन में सेम -टू -सेम शाॅल बुनकर दे दिया । जिसने भी देखा चकित रह गया । काकी-माँ भी दंग हो गई ।
माँ जब भी बीच - बीच में कोलकाता आती तो मेरी होम साइंस की प्रोजेक्ट की तैयारी करवाया करती थी । इसी सिलसिले में मैने सिलाई - कढ़ाई सहित लगभग सभी गुण माँ की सीखे ।
मेरी माँ बंगाली-खाना भी बड़ी स्वादिष्ट बनाया करती थी । वो बड़े चाव से अलग - अलग प्रकार की तरकारियाँ बाजार से लाती और विविध तरीके से व्यंजन बनाया करती थी ।
माँ को जड़ी - बूटियों का ज्ञान उनके पिता से विरासत में मिली थी । वे कोलकाता में भी और गाँव में भी जड़ी - बूटियों से लोगों के शारिरिक समस्याओं का निराकरण करती थी । लेकिन मै आयुर्वेद के नुस्खे अपनी माँ से नहीं सीख पाई कभी । मुझे कई बार हमारे घर के पीछे खेत पर लेकर गई लेकिन मुझे सारी पत्तियाँ हरी ही नजर आती थी । गोल - गोल छोटी - छोटी पत्तियों में एक ही जैसी होने के बाद भी क्या अंतर होता है ,कभी नहीं समझ पाई ।
मेरी माँ मैथिली -गीत गाने में महारथ रखती थी । सारे तीज - त्योहार के गीत और गीता , दुर्गा-श्लोक उनको मुँह जबानी याद थी ।
मिथिला में पर्व - त्योहार पर गीत गाने की महत्ता बहुत है लेकिन मै कोलकाता में रहने के कारण फिल्मी गीतों को तो अक्सर गुनगुनाया करती थी लेकिन मैथिली -गीत में अनाड़ी थी ।
गाँव में टोल - पड़ोस की लड़कियां हमेशा माँ के इर्द - गिर्द ही मंडराया करती थी सीखने के लिये ।
मेरी शादी पास के गाँव में ही पारम्परिक तरीके से हुई थी । वहाँ कोई पढ़ाई - लिखाई की बातें ना करता ,लेकिन बहू को मैथिली-गीत आता है या नहीं ,हर कोई पूछता । मुझे स्वंय के लिये यह अनाड़ीपन अच्छा नहीं लगता था ,इसलिए बड़ी प्रतिबद्धता से मैंने माँ से सब सीखा .
मेरी शादी के बाद मेरा द्विरागमन (विदाई) लगभग एक साल बाद हुआ था । इसी दौरान मैने माँ से कहा कि मुझे मैथिली गीत के समस्त भाष ( राग ) सीखना है । माँ ने कहा सीख लो । फिर तो मेरी माँ आँगन के इस छोड़ पर हो या दूसरे छोड़ पर , वो राग टेकती और मै उनके साथ ही गला साधती ।
मेरी पहली मैथिली गीत जो मैने माँ से सीखा था ,
"आजु नाथ एक व्रत महा सुख लागत हे,
आहे तोहे शिव धरु नट भेष कि डमरू बजावथ हे ।"
इसके बाद माँ ने चैतावर , महेशवाणी , नचारी , बटगबनी , बारहमासा , चौमासा ,छमासा , सोहर , खेलौना , भगवती के गीत सहित विद्यापति के बहुत सारे गीतों को गाना सीखाया था । गीत सिखाते समय वो उनमे छिपे विरह,मिलन,उत्सव से सम्बंधित भावों को भी अदि अधीरता से सुनाती थी . माँ को मैंने पदों और रागों में डूबते हुई भी पाया है .
शादी के बाद पूरे एक साल मै माँ के साथ गाँव में ही रही थी और द्विरागमन के बाद ससूराल में सत्यनारायण भगवान के पूजा वाले दिन पूरे गाँव की औरतों के बीच बैठकर मैने भगवान का गीत गया था, जिसमे मेरी ननदो ने मेरा साथ दिया था ।
माँ के साथ बिताये वो साल भर मेरे जीवन में स्वर्ण-भरे दिन थे ।
माँ नें मुझे लोगों का आदर करना सिखाया है । हम ब्राह्मण परिवार से है लेकिन माँ ने जाति - पाति से ऊपर उठकर अपने से बड़े को इज्ज़त देना सिखाया है ।
हमारे जो बड़े है हमें उनके पैर छूकर ही मान करना है चाहे वे पापा के दोस्त मोहन सिंह जी हो या कोलकाता में हमारे पड़ोसिया-काका जो कायस्थ परिवार से है ।
हमारे यहाँ काम करने वाली को हम मौसी कहते थे और खेतों में काम करने वाले जगदीश भैया को भी हम बड़े भाई सा आदर देते थे ।
यह संस्कार की विरासत माँ ने ही रोपी है हमारे मन में । मै अपने छुटपन में बड़ी होकर माँ जैसी ही बनना चाहती थी ।
मेरा चारित्रिक - निर्माण में मेरी माँ का ही हाथ रहा है । वो मुझमें रोपित है मै बिलकुल उन जैसी ही हूँ ।
आज वे ८० वर्ष की है और अभी छोटे भाई के पास है । बहुत दूर हूँ ,मुश्किल से साल भर में एकबार उनसे मिल पाती हूँ ।
क्रमशः
मेरे पापा और माँ


मेरे जीवन में शिक्षकों की भूमिका / यादों की मीठी खुशबू

मेरे जीवन में शिक्षकों की भूमिका हमेशा से संवेदनशील रही है । उन सबका प्रभाव मेरे मन - मस्तिष्क में अब तक बना हुआ है । पापा , माँ , मेरे ट्यूटर , रानी मिस जो मेरे स्कूल की वाॅइस प्रिंसीपल भी थी , उनसे मेरा बहुत गहरा लगाव रहा है , उनके साथ स्कूल के अलावा बाहर भी जाया करती थी । हमारी प्रिंसीपल वैदेही सिंहा का भी बहुत बड़ा हाथ है मेरे व्यक्तित्व निर्माण में । शादी के बाद ससूर जी , मेरे पति और लेखकीय कर्म में पूज्यनीय सर जी ( योगराज प्रभाकर ) ।
सभी शिक्षक मेरे जीवन में अलग - अलग मोड़ पर मुझे सार्थक दिशा दिये है । उन सभी से सम्बंधित संवेदनशील यादों को लिपीबद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ जो कई कड़ियों में होगा ।
मेरे पहले शिक्षक मेरे पापा , जिन्होंने कोलकाता के सिटी काॅलेज से अंग्रेजी में एम.ए .किये थे ,वे रहे है । स्कूल में हमारा नया सेशन शुरू होने पर इंग्लिश मिडियम के स्लेबस अनुसार रंग-बिरंगे पृष्ठ वाली किताबों से वे मेरा परिचय करवाया करते थे । पहले स्वंय राईम्स व कविताओं को गाकर सुनाया करते थे ,फिर उसी लय में हमें गाने के लिए कहते थे । हर पन्ने का , बड़ी चाव से इसी तरह हमारा परिचय होता रहा है जिंदगी-भर और हम सीखते रहे ।
शाम को ६ बजे से ९ बजे तक हमारा पढ़ने का समय होता था । इस बीच माँ भी खाना बनाकर हम पाँचों भाई-बहन के बीच आकर बैठ जाया करती थी और पापा उनको भी एक टास्क बनाकर देते थे याद करने के लिये ।
माँ अपने आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण सिर्फ पाँचवीं कक्षा तक ही पढ़ पाई थी और उनमें सीखने की ललक बहुत अधिक थी , इसलिए पापा हम सबके साथ उनको भी पढ़ाया करते थे ।
पापा को साहित्य से बहुत लगाव था इसलिए हमारे घर में एक लकड़ी की आलमारी थी जिसमें हिन्द पाॅकेट बुक्स की विभिन्न विधाओं में , हिन्दी व अंग्रेजी साहित्य की बेहद उच्च स्तर की पुस्तकें रखी थी । जैसे ही हम धीरे - धीरे बड़े होने लगे , मेरा झुकाव भी उन पुस्तकों की तरफ़ होने लगा ।
शरतचन्द्र ,रविन्द्रनाथ, प्रेमचंद के कहानी व उपन्यासों के पात्रों के साथ ,अनेकों साहित्यिक परिवेश में स्वंय को बढ़ते हुए पाया ।
जब पापा को , माँ को पढ़ाते देखती तो ठाकुर रविन्द्रनाथ जी अपनी पत्नी को पढ़ाते हुए सहसा याद आ जाते थे ।
हम सबके साथ ही माँ ने भी अपनी अंग्रेजी की पढाई की । माँ अब हमारे घर आने वाली अंग्रेजी अखबार " Amrit Bazaar Patrika " भी पढ़ने लगी थी ।
बचपन का दूसरा वह दौर जब अचानक से मै जरा बड़ी हो गई थी ।
हाँ , याद है मुझे ,उस साल सातवीं कक्षा में थी । खबर आई कि गाँव में दादी की तबियत बहुत खराब है और ऐसे में उनके पास किसी का होना बहुत जरूरी था । माँ ने फैसला किया कि अब वे दादी के पास गाँव में रहेंगी और हम सबको कोलकाता में ही पापा के साथ रहना है । हम सबको ही दादी की चिन्ता थी ,इसलिए माँ को जाने से रोकने की हमने कोशिश नहीं की और ना ही रोये थे जरा भी ।
दादी को पापा ने कई बार कोलकाता में हम सबके साथ रहने के लिये कहा लेकिन उनको यहाँ के फ्लैट संस्कृति , उनके दालान में कबूतरों के लिए बनाए हुए दड़बो जैसा लगता था । उनको अपना गाँव , अपने कई एकड़ो में बनें घर - आँगन - दालान से बड़ा मोह था ।
सुना था हमने कि हमारे दादाजी को भी कोलकाता कभी पसंद नहीं आया था । वे जितने दिन यहाँ रहे , घर का पानी तक नहीं पिये ।१५ किलोमीटर होगा हमारे घर यानि काँकुरगाछी से हावड़ा स्टेशन शायद , खड़ाऊँ पहन कर चलने वाले हमारे दादाजी लगभग इतनी दूर ही रोज सुबह मुंह-अंधेरे गंगा- स्नान के लिए निकलते थे और वहीं से गैलन में अपने पीने के लिए पानी भी भर कर लाते थे ।
उन्हीं की तरह दादी का भी स्वभाव था , बेहद सात्विक ।
माँ भी मेरी सात्विक प्रकृति की है । हमने बचपन में उनसे यही सीखा है कि विवादास्पद जगहों से दूरी बनाकर रखू । गलत संगति का परिणाम हमेशा गलत ही होता है । गाँव जाते वक्त माँ ने हम भाई-बहन को कई समझाईस देकर गई ।
जाते वक्त माँ के लिये वो समय कैसा बीता होगा ,मुझे सीता का पति बिना वनवास जाना याद आ जाता है बस अंतर यही था कि माँ के ऊपर पापा और परिवार का संरक्षण कायम था ।
दीदी की शादी चार साल पहले ही हो चुकी थी इसलिए माँ के गाँव जाते ही रसोई की जिम्मेदारी मेरे पर आना था लेकिन पापा ने मेरी बाल सुधियों को स्थिर रखा । वे मेरे संग रसोई में खाना पकाते थे और खेल - खेल में यहीं पर रोटी बनाना , कोयले के चुल्हे को सुलगाने के तरीके को सीखा । पापा मुझे कभी अकेले रसोई में जाने नहीं देते थे ।
वे मुझे कहते कि तुम चुल्हे में लकड़ी , उपले और कोयले को जमा कर रखना , जैसे ही मै राधाकृष्ण के मंदिर से आता हुआ दिखाई दू ,बस इसमें आँच कर देना ,बाकी मै आकर देख लूंगा ।
मै भी चार बजते ही रेलिंग पर टंग जाती पापा के इंतज़ार में । चौथी मंजिल से दूर ,रास्ते के मुड़ने के उस कोने पर ,पापा ठीक ५:३० बजे आते हुए दिखाई देते तो मै जल्दी से चुल्हे में नीचे राख पर मिट्टी का तेल डाल दिया-सलाई मार ,आँच फूंक आती ।
पापा आते ,आँच सम्भालते और फिर हम दोनों खाना बनाते । रोटी - सब्जी बनने के बाद फिर शाम को हम सब भाई - बहन पढ़ने बैठते । माँ के ना होने से सब कुछ बदल गया था लेकिन माँ की चिट्ठियों में दादी की सेहत में सुधार हम सबके लिए सबसे बड़ी राहत थी ।
क्रमशः


सरस्वती-वंदना


वंदन वंदन करू अभिनंदन 
परमेश्वरी माँ शारदे ।
हँसवाहिनी, विद्यादायिनी
श्वेतमय श्वेताम्बरे ।
बल बुद्धि ,सद-भाव आचरण
ज्ञान रौशनी ,आत्मावरण
जीवन-लक्ष्य, वागीश्वरी ।।
वंदन वंदन करू अभिनंदन
परमेश्वरी माँ शारदे ॥
मन तमस , भर दे उजियारा
दूर कर माँ ,जग अंधियारा
कर करूणा करूणामयी ॥
वंदन वंदन करू अभिनंदन
परमेश्वरी माँ शारदे ॥
चरण कमल में चरण की दासी
छाई है चहुं ओर उदासी
दे आशीष माँ चंद्रकांति ॥
वंदन वंदन करू अभिनंदन
परमेश्वरी माँ शारदे ॥
मिटा दे माँ ,द्वेषभाव को
सम्बल दे मेरे , विश्वास को
कर रक्षा ब्रह्मचारिणी ॥
वंदन वंदन करू अभिनंदन
परमेश्वरी माँ शारदे ॥
गर्म रेत-सा ,जीवन-पथ है
क्लेश-मय ,वातावरण है
मिटा क्लेश , भुवनेश्वरी ॥
वंदन वंदन करू अभिनंदन
परमेश्वरी माँ शारदे ॥
कान्ता राॅय
भोपाल


गिरह


तुम संग मेरा रिश्ता
बुनती रही , गुनती रही
रात से सुबह तक 
सुबह से शाम तक
साँसों से साँस लेकर
हृदय से स्पंदन लेकर
गुँथती रही
दिन ,हफ्ते ,महीने, साल
सपनों से बीते
गुँथे हुए सपनों में
तुम्हारे अपनापन में
मन निश्चिंत रहा
बिना किसी आहट के
बिना सरसराहट के
चुपके से हवा चली
बुने हुए ,गुने हुए
चाव से गुँथे हुए
प्रीत भरे रिश्ते
खुलकर बिखर गये
क्यों , ऐसे कैसे ...? सोचती रही
अरे ! ....ध्यान आया
गुँथे हुए तेरे -मेरे रिश्ते पर
गिरह लगाना जो भूल गई थी ।
कान्ता राॅय
भोपाल


पुतले का दर्द / लघुकथा



" देह से परे औरत को एक ' मानव ईकाई ' के रूप में क्यों नहीं देखा जा सकता है ? " टिफिन खोलते हुए सरला ने अपनी दृष्टि देवाशीष की तरफ की ।

" इससे क्या बदलाव आयेगा ? " आज देवाशीष अपना टिफिन फिर से घर भूल आये थे ।

" बहुत बदलाव आयेगा , अगर ऐसा होता है तो यह पुरूष के चिंतन और व्यवहार की उच्चतम अवस्था होगी । " सरला ने व्यग्रता से जबाव दिया ।

" तुम्हें यकीन है इस पर ? ऐसा कभी नहीं हो सकता है ! असंभव ! " हाथ से छूटता सुखद-पलछिन , पौरुष एकदम से बौखला उठा ।
" मार्ग कठिन तो है लेकिन असंभव कुछ भी नहीं ।" वह अपनी बात रख कर शांत हो चुकी थी ।
देवाशीष ने उसकी तरफ ऐसे घूरकर देखा मानों नीम की छोटी गोली घी - चावल के साथ खा रहे हो ।


कान्ता राॅय
भोपाल


मुक्ति - एक पुख्ता सवाल / लघुकथा


कुछ - कुछ जिन्दा सा , अपनी साथ मरी हुई यादें लिये , यहाँ सड़क की सीढ़ियों पर वह रोज अकेले शाम को बैठा करता था । आते - जाते लोग उसे देखते और मुँह बना कर निकल जाते ।
लोगों का व्यवहार देख अचरज से भर जाता । एक विचित्र-सी बेचैनी , एक अजीब-सी छटपटाहट मन पर छा जाती । कभी खुद को देखता तो कभी लोगों को । स्वंय में हीनता का बोध पनपने का एहसास हुआ । महज़ कुछ लोगों के नागवार गुजरने के कारण वह अपने बैठने की इस जगह को छोड़ना नहीं चाहता था ।
इस स्थिति से निकलने का ऊपाय ढुंढने लगा ।
धीरे - धीरे लोगों के तिरस्कृत नजर को सहन करने लगा । अब जब लोग उसे देखते तो वह भी घूर कर देखता जब तक कि देखने वाला उसको देखना ना छोड़ दे ।
उसके देखने से सकपकाये लोगों की निगाहें बदलने लगी । वह उनके नजरिए से ऊपर उठने लगा ।
अब आते - जाते लोग उसे दुआ- सलाम करके आगे निकलते ।
हीन भाव ने उसे तोड़ा या कुंठित नहीं किया ,बल्कि साध कर और सँवार दिया था ।
उसकी मुस्कुराहट में मरी हुई यादें भी अब प्राणवायु पा गई थी ।

कान्ता राॅय
भोपाल


तमाशबीन / लघुकथा


वह अपने सीधेपन से असंतुष्ट होकर , करवट बदल , नया चेहरा अख्तियार कर रहा है । जब नाॅर्मल आदमी था तब वह भीड़ का हिस्सा हुआ करता था , लेकिन अब भीड़ का हिस्सा नहीं है ।

चरित्र में उग आये टेढ़ेपन की वजह से भीड़ में अलग , अपनी तरह का वह अकेला व्यक्ति है ।
पिछले कई दिनों से वह कूड़े - करकट का एक पहाड़ खड़ा करने में लगा हुआ था जो आज पूरा हो गया ।
उसके मुताबिक पहाड़ बहुत ऊँचा बना था । हाथ में एक झंडा लेकर उस पर चढ़ गया ।

कुछ लोग उसकी तरफ ताकने लगे। उसे देख कर लोगों के चेहरे पर सवालिया निशान उभरने लगे । धीरे -धीरे लोग सवाल बन गये ।
शलाका पुरूष .... मिथक पुरूष, ढोंगी इत्यादि अलग - अलग तरह के नामों से सम्बोधित कर , कुछ -कुछ कह , सवाल बने लोग अब अपने - अपने भीतर की तमाम गन्दगी उलीच रहे थे ।


कान्ता राॅय
भोपाल


पोकीमोन मास्टर / लघुकथा


नौ वर्ष का हनी अचानक से गायब था । सुबह से ही वह किसी को नजर नही आया था ।
गली मुहल्ला सब छान मारा , घर का लाडला , घर से गायब , कोहराम सा मच गया । जाने कैसे कहाँ ?? सभी थक गए ढुँढ कर उसको ।
अब तो रात के नौ बजने वाले थे । सबका दिल बैठा जा रहा था ।
पापा और चाचा दोनों पुलिस स्टेशन जाने के लिए गाड़ी उसी तरफ मोड़ दिए । जैसे ही गुलाब उद्यान के पास पहूचे तो वहीँ बाहर हनी को हताश , मुंह लटकाए हुए बैठे पाया ।
गाड़ी रोक बाहर निकल एकदम से पापा ने हनी को गले से लगाया , " बेटा तुम यहाँ कैसे आये ? "
" पापा मै तो जंगल में पोकीमोन ढुंढने आया हूँ , लेकिन मुझे तो एक भी पोकीमोन नही मिला , क्या मै अब कभी पोकीमोन मास्टर नही बन पाऊँगा ? " कहते हुए हनी रो पड़ा .

कान्ता राॅय
भोपाल