बुधवार, 11 मई 2016

मेरी दूसरी शिक्षक " मेरी माँ " / यादों की मीठी खुशबू

गतांक से आगे--
मेरी दूसरी शिक्षक " मेरी माँ "
मेरे जीवन में शिक्षकों की भूमिका हमेशा से संवेदनशील रही है । उन सबका प्रभाव मेरे मन - मस्तिष्क में अब तक बना हुआ है । पापा , माँ , मेरे ट्यूटर , रानी मिस जो मेरे स्कूल की वाॅइस प्रिंसीपल भी थी , उनसे मेरा बहुत गहरा लगाव रहा है , उनके साथ स्कूल के अलावा बाहर भी जाया करती थी । हमारी प्रिंसीपल वैदेही सिंहा का भी बहुत बड़ा हाथ है मेरे व्यक्तित्व निर्माण में । शादी के बाद ससूर जी , मेरे पति और लेखकीय कर्म में पूज्यनीय सर जी ( योगराज प्रभाकर ) ।
सभी शिक्षक मेरे जीवन में अलग - अलग मोड़ पर मुझे सार्थक दिशा दिये है । उन सभी से सम्बंधित संवेदनशील यादों को लिपीबद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ जो कई कड़ियों में होगा ।-----
किशोरावस्था में माँ की जगह पिता का सामीप्य अधिक पाने के कारण पापा के बाद मै माँ को अपनी दूसरी शिक्षिक मानती हूँ । मेरी माँ एक खूबसूरत महिला होने के नाते कुशल गृहणी थी । गृहकार्यों के अलावा वे सिलाई ,कढ़ाई और बुनाई में पारंगत थी ।
असीम ऊर्जा से भरपूर मेरी माँ कैसी भी टिपीकल बुनाई उनके सामने आ जाये वे आँखों ही आँखों में खड़े - खड़े डिजाइन को भाँप लेती थी और घर में आकर तुरंत उतार लेती थी ।
इसी संदर्भ में एक वाकया याद आ गया ।मै शायद ११ वर्ष की थी जब दीदी ससुराल से पहली बार कोलकाता आई हुई थी । महीने भर के लिये आई थी । हमारे बिल्डिंग में पड़ोस की एक काकी-माँ जो कश्मीर घूम कर वहां से एक लाल रंग का क्रोशिये की शाॅल लेकर आई थी । दीदी ने देखते ही जिद कर ली कि उनको वैसी ही शाॅल चाहिए ।
माँ के लिये बड़ी मुश्किल हुई । दीदी की बेस्ट फ्रेंड सुषमा जीजी ने काकी-माँ से येन- केन- प्रकारेण कुछ देर के लिये शाॅल लेकर आई । काकी-माँ को लगा कि कुछ मिनटों के लिये दिखाने से भला क्या होगा !
लेकिन माँ ने रात - भर जागकर डिजाइन उतार ली और दीदी के ससुराल जाने से पहले सिर्फ पन्द्रह दिन में सेम -टू -सेम शाॅल बुनकर दे दिया । जिसने भी देखा चकित रह गया । काकी-माँ भी दंग हो गई ।
माँ जब भी बीच - बीच में कोलकाता आती तो मेरी होम साइंस की प्रोजेक्ट की तैयारी करवाया करती थी । इसी सिलसिले में मैने सिलाई - कढ़ाई सहित लगभग सभी गुण माँ की सीखे ।
मेरी माँ बंगाली-खाना भी बड़ी स्वादिष्ट बनाया करती थी । वो बड़े चाव से अलग - अलग प्रकार की तरकारियाँ बाजार से लाती और विविध तरीके से व्यंजन बनाया करती थी ।
माँ को जड़ी - बूटियों का ज्ञान उनके पिता से विरासत में मिली थी । वे कोलकाता में भी और गाँव में भी जड़ी - बूटियों से लोगों के शारिरिक समस्याओं का निराकरण करती थी । लेकिन मै आयुर्वेद के नुस्खे अपनी माँ से नहीं सीख पाई कभी । मुझे कई बार हमारे घर के पीछे खेत पर लेकर गई लेकिन मुझे सारी पत्तियाँ हरी ही नजर आती थी । गोल - गोल छोटी - छोटी पत्तियों में एक ही जैसी होने के बाद भी क्या अंतर होता है ,कभी नहीं समझ पाई ।
मेरी माँ मैथिली -गीत गाने में महारथ रखती थी । सारे तीज - त्योहार के गीत और गीता , दुर्गा-श्लोक उनको मुँह जबानी याद थी ।
मिथिला में पर्व - त्योहार पर गीत गाने की महत्ता बहुत है लेकिन मै कोलकाता में रहने के कारण फिल्मी गीतों को तो अक्सर गुनगुनाया करती थी लेकिन मैथिली -गीत में अनाड़ी थी ।
गाँव में टोल - पड़ोस की लड़कियां हमेशा माँ के इर्द - गिर्द ही मंडराया करती थी सीखने के लिये ।
मेरी शादी पास के गाँव में ही पारम्परिक तरीके से हुई थी । वहाँ कोई पढ़ाई - लिखाई की बातें ना करता ,लेकिन बहू को मैथिली-गीत आता है या नहीं ,हर कोई पूछता । मुझे स्वंय के लिये यह अनाड़ीपन अच्छा नहीं लगता था ,इसलिए बड़ी प्रतिबद्धता से मैंने माँ से सब सीखा .
मेरी शादी के बाद मेरा द्विरागमन (विदाई) लगभग एक साल बाद हुआ था । इसी दौरान मैने माँ से कहा कि मुझे मैथिली गीत के समस्त भाष ( राग ) सीखना है । माँ ने कहा सीख लो । फिर तो मेरी माँ आँगन के इस छोड़ पर हो या दूसरे छोड़ पर , वो राग टेकती और मै उनके साथ ही गला साधती ।
मेरी पहली मैथिली गीत जो मैने माँ से सीखा था ,
"आजु नाथ एक व्रत महा सुख लागत हे,
आहे तोहे शिव धरु नट भेष कि डमरू बजावथ हे ।"
इसके बाद माँ ने चैतावर , महेशवाणी , नचारी , बटगबनी , बारहमासा , चौमासा ,छमासा , सोहर , खेलौना , भगवती के गीत सहित विद्यापति के बहुत सारे गीतों को गाना सीखाया था । गीत सिखाते समय वो उनमे छिपे विरह,मिलन,उत्सव से सम्बंधित भावों को भी अदि अधीरता से सुनाती थी . माँ को मैंने पदों और रागों में डूबते हुई भी पाया है .
शादी के बाद पूरे एक साल मै माँ के साथ गाँव में ही रही थी और द्विरागमन के बाद ससूराल में सत्यनारायण भगवान के पूजा वाले दिन पूरे गाँव की औरतों के बीच बैठकर मैने भगवान का गीत गया था, जिसमे मेरी ननदो ने मेरा साथ दिया था ।
माँ के साथ बिताये वो साल भर मेरे जीवन में स्वर्ण-भरे दिन थे ।
माँ नें मुझे लोगों का आदर करना सिखाया है । हम ब्राह्मण परिवार से है लेकिन माँ ने जाति - पाति से ऊपर उठकर अपने से बड़े को इज्ज़त देना सिखाया है ।
हमारे जो बड़े है हमें उनके पैर छूकर ही मान करना है चाहे वे पापा के दोस्त मोहन सिंह जी हो या कोलकाता में हमारे पड़ोसिया-काका जो कायस्थ परिवार से है ।
हमारे यहाँ काम करने वाली को हम मौसी कहते थे और खेतों में काम करने वाले जगदीश भैया को भी हम बड़े भाई सा आदर देते थे ।
यह संस्कार की विरासत माँ ने ही रोपी है हमारे मन में । मै अपने छुटपन में बड़ी होकर माँ जैसी ही बनना चाहती थी ।
मेरा चारित्रिक - निर्माण में मेरी माँ का ही हाथ रहा है । वो मुझमें रोपित है मै बिलकुल उन जैसी ही हूँ ।
आज वे ८० वर्ष की है और अभी छोटे भाई के पास है । बहुत दूर हूँ ,मुश्किल से साल भर में एकबार उनसे मिल पाती हूँ ।
क्रमशः
मेरे पापा और माँ


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