बुधवार, 11 मई 2016

मेरे जीवन में शिक्षकों की भूमिका / यादों की मीठी खुशबू

मेरे जीवन में शिक्षकों की भूमिका हमेशा से संवेदनशील रही है । उन सबका प्रभाव मेरे मन - मस्तिष्क में अब तक बना हुआ है । पापा , माँ , मेरे ट्यूटर , रानी मिस जो मेरे स्कूल की वाॅइस प्रिंसीपल भी थी , उनसे मेरा बहुत गहरा लगाव रहा है , उनके साथ स्कूल के अलावा बाहर भी जाया करती थी । हमारी प्रिंसीपल वैदेही सिंहा का भी बहुत बड़ा हाथ है मेरे व्यक्तित्व निर्माण में । शादी के बाद ससूर जी , मेरे पति और लेखकीय कर्म में पूज्यनीय सर जी ( योगराज प्रभाकर ) ।
सभी शिक्षक मेरे जीवन में अलग - अलग मोड़ पर मुझे सार्थक दिशा दिये है । उन सभी से सम्बंधित संवेदनशील यादों को लिपीबद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ जो कई कड़ियों में होगा ।
मेरे पहले शिक्षक मेरे पापा , जिन्होंने कोलकाता के सिटी काॅलेज से अंग्रेजी में एम.ए .किये थे ,वे रहे है । स्कूल में हमारा नया सेशन शुरू होने पर इंग्लिश मिडियम के स्लेबस अनुसार रंग-बिरंगे पृष्ठ वाली किताबों से वे मेरा परिचय करवाया करते थे । पहले स्वंय राईम्स व कविताओं को गाकर सुनाया करते थे ,फिर उसी लय में हमें गाने के लिए कहते थे । हर पन्ने का , बड़ी चाव से इसी तरह हमारा परिचय होता रहा है जिंदगी-भर और हम सीखते रहे ।
शाम को ६ बजे से ९ बजे तक हमारा पढ़ने का समय होता था । इस बीच माँ भी खाना बनाकर हम पाँचों भाई-बहन के बीच आकर बैठ जाया करती थी और पापा उनको भी एक टास्क बनाकर देते थे याद करने के लिये ।
माँ अपने आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण सिर्फ पाँचवीं कक्षा तक ही पढ़ पाई थी और उनमें सीखने की ललक बहुत अधिक थी , इसलिए पापा हम सबके साथ उनको भी पढ़ाया करते थे ।
पापा को साहित्य से बहुत लगाव था इसलिए हमारे घर में एक लकड़ी की आलमारी थी जिसमें हिन्द पाॅकेट बुक्स की विभिन्न विधाओं में , हिन्दी व अंग्रेजी साहित्य की बेहद उच्च स्तर की पुस्तकें रखी थी । जैसे ही हम धीरे - धीरे बड़े होने लगे , मेरा झुकाव भी उन पुस्तकों की तरफ़ होने लगा ।
शरतचन्द्र ,रविन्द्रनाथ, प्रेमचंद के कहानी व उपन्यासों के पात्रों के साथ ,अनेकों साहित्यिक परिवेश में स्वंय को बढ़ते हुए पाया ।
जब पापा को , माँ को पढ़ाते देखती तो ठाकुर रविन्द्रनाथ जी अपनी पत्नी को पढ़ाते हुए सहसा याद आ जाते थे ।
हम सबके साथ ही माँ ने भी अपनी अंग्रेजी की पढाई की । माँ अब हमारे घर आने वाली अंग्रेजी अखबार " Amrit Bazaar Patrika " भी पढ़ने लगी थी ।
बचपन का दूसरा वह दौर जब अचानक से मै जरा बड़ी हो गई थी ।
हाँ , याद है मुझे ,उस साल सातवीं कक्षा में थी । खबर आई कि गाँव में दादी की तबियत बहुत खराब है और ऐसे में उनके पास किसी का होना बहुत जरूरी था । माँ ने फैसला किया कि अब वे दादी के पास गाँव में रहेंगी और हम सबको कोलकाता में ही पापा के साथ रहना है । हम सबको ही दादी की चिन्ता थी ,इसलिए माँ को जाने से रोकने की हमने कोशिश नहीं की और ना ही रोये थे जरा भी ।
दादी को पापा ने कई बार कोलकाता में हम सबके साथ रहने के लिये कहा लेकिन उनको यहाँ के फ्लैट संस्कृति , उनके दालान में कबूतरों के लिए बनाए हुए दड़बो जैसा लगता था । उनको अपना गाँव , अपने कई एकड़ो में बनें घर - आँगन - दालान से बड़ा मोह था ।
सुना था हमने कि हमारे दादाजी को भी कोलकाता कभी पसंद नहीं आया था । वे जितने दिन यहाँ रहे , घर का पानी तक नहीं पिये ।१५ किलोमीटर होगा हमारे घर यानि काँकुरगाछी से हावड़ा स्टेशन शायद , खड़ाऊँ पहन कर चलने वाले हमारे दादाजी लगभग इतनी दूर ही रोज सुबह मुंह-अंधेरे गंगा- स्नान के लिए निकलते थे और वहीं से गैलन में अपने पीने के लिए पानी भी भर कर लाते थे ।
उन्हीं की तरह दादी का भी स्वभाव था , बेहद सात्विक ।
माँ भी मेरी सात्विक प्रकृति की है । हमने बचपन में उनसे यही सीखा है कि विवादास्पद जगहों से दूरी बनाकर रखू । गलत संगति का परिणाम हमेशा गलत ही होता है । गाँव जाते वक्त माँ ने हम भाई-बहन को कई समझाईस देकर गई ।
जाते वक्त माँ के लिये वो समय कैसा बीता होगा ,मुझे सीता का पति बिना वनवास जाना याद आ जाता है बस अंतर यही था कि माँ के ऊपर पापा और परिवार का संरक्षण कायम था ।
दीदी की शादी चार साल पहले ही हो चुकी थी इसलिए माँ के गाँव जाते ही रसोई की जिम्मेदारी मेरे पर आना था लेकिन पापा ने मेरी बाल सुधियों को स्थिर रखा । वे मेरे संग रसोई में खाना पकाते थे और खेल - खेल में यहीं पर रोटी बनाना , कोयले के चुल्हे को सुलगाने के तरीके को सीखा । पापा मुझे कभी अकेले रसोई में जाने नहीं देते थे ।
वे मुझे कहते कि तुम चुल्हे में लकड़ी , उपले और कोयले को जमा कर रखना , जैसे ही मै राधाकृष्ण के मंदिर से आता हुआ दिखाई दू ,बस इसमें आँच कर देना ,बाकी मै आकर देख लूंगा ।
मै भी चार बजते ही रेलिंग पर टंग जाती पापा के इंतज़ार में । चौथी मंजिल से दूर ,रास्ते के मुड़ने के उस कोने पर ,पापा ठीक ५:३० बजे आते हुए दिखाई देते तो मै जल्दी से चुल्हे में नीचे राख पर मिट्टी का तेल डाल दिया-सलाई मार ,आँच फूंक आती ।
पापा आते ,आँच सम्भालते और फिर हम दोनों खाना बनाते । रोटी - सब्जी बनने के बाद फिर शाम को हम सब भाई - बहन पढ़ने बैठते । माँ के ना होने से सब कुछ बदल गया था लेकिन माँ की चिट्ठियों में दादी की सेहत में सुधार हम सबके लिए सबसे बड़ी राहत थी ।
क्रमशः


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