बुधवार, 11 मई 2016

मुक्ति - एक पुख्ता सवाल / लघुकथा


कुछ - कुछ जिन्दा सा , अपनी साथ मरी हुई यादें लिये , यहाँ सड़क की सीढ़ियों पर वह रोज अकेले शाम को बैठा करता था । आते - जाते लोग उसे देखते और मुँह बना कर निकल जाते ।
लोगों का व्यवहार देख अचरज से भर जाता । एक विचित्र-सी बेचैनी , एक अजीब-सी छटपटाहट मन पर छा जाती । कभी खुद को देखता तो कभी लोगों को । स्वंय में हीनता का बोध पनपने का एहसास हुआ । महज़ कुछ लोगों के नागवार गुजरने के कारण वह अपने बैठने की इस जगह को छोड़ना नहीं चाहता था ।
इस स्थिति से निकलने का ऊपाय ढुंढने लगा ।
धीरे - धीरे लोगों के तिरस्कृत नजर को सहन करने लगा । अब जब लोग उसे देखते तो वह भी घूर कर देखता जब तक कि देखने वाला उसको देखना ना छोड़ दे ।
उसके देखने से सकपकाये लोगों की निगाहें बदलने लगी । वह उनके नजरिए से ऊपर उठने लगा ।
अब आते - जाते लोग उसे दुआ- सलाम करके आगे निकलते ।
हीन भाव ने उसे तोड़ा या कुंठित नहीं किया ,बल्कि साध कर और सँवार दिया था ।
उसकी मुस्कुराहट में मरी हुई यादें भी अब प्राणवायु पा गई थी ।

कान्ता राॅय
भोपाल


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