बुधवार, 11 मई 2016

पुतले का दर्द / लघुकथा



" देह से परे औरत को एक ' मानव ईकाई ' के रूप में क्यों नहीं देखा जा सकता है ? " टिफिन खोलते हुए सरला ने अपनी दृष्टि देवाशीष की तरफ की ।

" इससे क्या बदलाव आयेगा ? " आज देवाशीष अपना टिफिन फिर से घर भूल आये थे ।

" बहुत बदलाव आयेगा , अगर ऐसा होता है तो यह पुरूष के चिंतन और व्यवहार की उच्चतम अवस्था होगी । " सरला ने व्यग्रता से जबाव दिया ।

" तुम्हें यकीन है इस पर ? ऐसा कभी नहीं हो सकता है ! असंभव ! " हाथ से छूटता सुखद-पलछिन , पौरुष एकदम से बौखला उठा ।
" मार्ग कठिन तो है लेकिन असंभव कुछ भी नहीं ।" वह अपनी बात रख कर शांत हो चुकी थी ।
देवाशीष ने उसकी तरफ ऐसे घूरकर देखा मानों नीम की छोटी गोली घी - चावल के साथ खा रहे हो ।


कान्ता राॅय
भोपाल


1 टिप्पणी :

  1. ये तो सदियों से चलता आया है ,, पर मै कहना चाहूंगा कि हर बार बाल द्रोपदी ही क्यो बान्धे

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