शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

चक्कर/लघुकथा


वह रोज इसी वक्त आॅफिस के लिए निकलती थी । खूबसूरत ,कमाऊ और अमीर घर की शहजादी ····! मनोज की तो पहले दिन ही उस पर नजर ही अटक गई थी ।
तीन साल से वह नौकरी के लिए भटक रहा है , अच्छी डिग्री ना होने के कारण हर जगह से मायूसी ही हाथ आई थी अब तक ।
अगर ये हाथ आ गयी तो गाड़ी ,बंगला , और बैंक बैलेंस सब अपने क़दमों में ! " शानदार जिंदगी जीने के ख्वाब इसी से पूरे होते नजर आये ।
बालों पर कंघी फेर, पास ही खड़ी बाइक के शीशे में अपना चेहरा देख , कन्धों को उचकाते हुए ,एकदम सधे हुए चाल में आगे बढ़ते हुए मुस्कुराते हुए बुदबुदा उठा , "बस जरा सा उससे चक्कर चलांना है , अब यहाँ तो मेहनत करनी पड़ेगी बाबू ! चल ,बढ़ आगे, सुना है कोशिश करने वालों की हार नहीं होती है "

कान्ता राॅय
भोपाल

सामंजस्य /लघुकथा


"मेरे बेटे का मार्कशीट देखिये , 97 प्रतिशत लेकर आया है। इसके एडमिशन को कैसे मना कर सकते है आपलोग ?"
"अरे ,अरे, आप तो ऐसे बिफर रहे है कि हमने कोई नई बात की है !"
" नई बात तो की ही है आपने, मैं ऊपर तक इस बात को लेकर जाऊंगा ! "
"देखिये , ऊपर भी हम ही बैठे मिलेंगे सिस्टम में , कुछ नहीं होने वाला। आपके बेटे का साल ख़राब होगा और आपका वक़्त भी "
"क्या ?·····क्या कहा आपने ,ऊपर भी आप ही बैठे हुए है , ·····ओह ! कहिये फिर मुझे क्या करना होगा ? "

" आपके बेटे में प्रतिभा है इसलिए सिर्फ एक लाख पर ही आपके साथ सामंजस्य बिठा रहे है ,नहीं तो इसी सीट के हम 2 लाख तक चार्ज करते है। इतना सामंजस्य तो अब आपको भी बनाना ही पड़ेगा ! "

कान्ता रॉय
भोपाल

घर के भगवान /लघुकथा


दरवाजे को जब घर के बुजुर्ग के मुँह पर धकेला गया तो गुस्से से भरा हुआ वह "धमाक से " बहुत तेज आवाज कर बैठा । बाहर मूसलाधार बारिश , कुण्डी भी दर्द से चटक उठी।
वह इन सबसे अनजान रसोई में , ऑफिस से आये पति के चाय- पानी के इंतजाम में लगी हुई थी। अचानक बिजली की तड़तड़ाहट से घबड़ा उठी , जैसे कही दूर बादल फटा हो , मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी।
खिड़की जोर -जोर से खड़कने लगी। वह खिड़की बंद करने को तेजी से बढ़ी कि चौंक उठी , "ये यहां कैसे ? " सास-ससुर बारिश में सड़क पर.....! उसका मन एकदम से विचलित हो उठा , " अरे ,देखो , बाहर पापा जी हमारा घर ढूंढ रहे है , लगता है घर का नम्बर नहीं मिला , मैं जल्दी से लिवा लाती हूँ। "
"रुको जरा , मैंने बाहर से वापस भेज दिया है उनको , लिवाने की जरुरत नहीं है " - टाई की नॉट ढीली करते हुए वह खिन्न था ।
"ऐसा क्यों किया ? वो पिता है हमारे " -एकदम से स्तब्धता छा गई थी।
"पैसे तो वक़्त पर भेजता हूँ ना, यहां आने की क्या जरुरत थी उनको "- इतनी रुखाई ,वह अनमना उठी।
" माता -पिता घर के भगवान होते है , मत भूलो , हमारे भी बच्चे है ! "
"तुम नहीं जानती , मैंने जीवन भर झेला है इनको । चलो जल्दी से खिड़की बंद करो " - खिड़की ने सहम कर दरवाजे की और देखा ।
" नहीं , ये खिड़की बंद नहीं होगी , तुमने झेल ली है , अब मेरी बारी है झेलने की " - जोर से उसको डपट लगाते हुए वह दरवाजे की ओर बढ़ी कि दरवाजा और कुण्डी दोनों चहक कर खुल गए । सहसा दीवारों में उतरती हुई नमी भी गायब हो गयी ।

कान्ता रॉय
भोपाल

पतिता/लघुकथा

शोर शराबे में पूरा मुहल्ला डूबा हुआ था ।
खूब बातें बन रही थी ।
तीन तीन बच्चों की माँ सावित्री पकड़ी गई थी अपने घर में , किसी और के साथ ।
कितनी बातें कही जा रही थी । इतनी गालियाँ सुनकर भी पछतावा नही था उसके चेहरे पर ।
सावित्री अपने ऐय्यास पति कि झुकी हुई सिर को बड़े गुमान से देख रही थी कि उसकी नज़र अपनी ओर देखती बेटी पर पड़ी . अब उसका सिर शर्म से झुक गया था .

कान्ता राॅय

मवेशी /लघुकथा


" अरे , यहाँ आकर अब क्यों बैठ गया , क्या हुआ घर नहीं चलना है ? हो गया पटरियों को बिछाना आज , बाकी का अब कल पूरा करेंगे । "
" तु जा ,मै जरा देर में आता हूँ , वैसे भी कौन है अपना वहां ! खाने और सोने भर को ही तो ......"
" आज बहुत गम खा रहा है तू तो ,बता क्या हुआ है । "
" ठेकेदार इतनी दूर लाकर पटक दिया है मात्र पाँच हजार महीने पर । एक कमरे में दस लोगों को सोना और रहना पडता है । बोला था खाना और रहना फ्री । मै तो समझा था एक खोली देगा तो परिवार को भी यहीं बुला लूंगा ......, खैर , यह काम भी खत्म होने ही वाला है , फिर आगे क्या ! "
" आगे क्या , फिर दूसरी साईट पर भेज दिये जायेंगे "
" हाँ , भेज दिये जायेंगे दुसरे साईट पर , ठेकेदार के मवेशी जो ठहरे ! "


कान्ता राॅय
भोपाल

बंदिनी /लघुकथा


"आओ मेरे पास, मैं भव्य हूँ ,सोने का हूँ , तुम्हें रोज मोती के दाने दूंगा। "
" नहीं ,मैं नहीं आऊँगी तुम्हारे पास बंधने को , मुझे मेरी उड़ान प्यारी है। "
" देखो जरा , अपने ऊपर ,वो दूssर गिद्ध ,तुम पर नज़र लगाये हुए है , जरा सा चुकी कि झपट कर तुम्हें ले जायेगा । "
"अच्छा ? "
" मैं तुम्हें रानी बना कर रखूँगा। "
"नहीं , मुझे रानी नहीं बनना ! मैं स्वतंत्र उड़ान भरते हुए, लड़ते हुए , वीरांगना की मौत पसंद करुँगी बजाय तुम्हारी बंदिनी के। "
"अच्छा ! मैं चला , शुभकामना तुम्हें ! "
"कहाँ जा रहे हो अब ? "
"मेरे समस्त सोने के सलाखों को गलाकर तुम्हारे लिए उड़ने वाला घोडा जो बनाना है ! "

कान्ता रॉय
भोपाल



सूजा/लघुकथा


काॅलेज दूर होने के कारण लोकल ट्रेन में अब रोज सफर करना होगा । लेकिन उस भीड़ का क्या ......? मन घबरा रहा था । कैसे मैनेज करेगी उन अनचाहे स्पर्शों को जो भीड़ का फायदा उठा कर कोंचती कुहनियों और सरसराती अंगुलियों से उसकी आत्मा को छलनी करते फिरेंगे ? दिल बैठ रहा था ।
" हो गई तैयार ? ये ले टिफिन , सब अच्छे से रख लिया है ना ? देख वक्त का ख्याल रखना । जब तक लौटकर नहीं आओगी , मुझे चिंता रहेगी तुुम्हारी ! "
" जी , मम्मी , सब रख लिया , लेकिन लोकल की भीड़.......! कैसे मैनेज करूँगी मै ? "
" बाहर कदम रखने से पहले मनःस्थिति को मजबूत करना तो जरूरी है । जरा रूक ! यह ले , इसे ट्रेन में चढते वक्त अपनी मुट्ठी में कसे रखना । "
" यह तो सूजा है ! "
" हाँ , भीड़ में स्वंय के बचाव का एक आधार भी ! "
" माँ ,तुम भी .....? "
" हाँ , स्त्रीत्व को दंश देने वाले उनके सूजे के जबाव में यह हमारा सूजा । " सुनते ही वह खिलखिला उठी ।

* सूजा ,बोरा सिलने वाली मोटी सूई


कान्ता राॅय
भोपाल

संकल्प - एक व्यंग

" ओ बाबू , सुन ना ! मुझे नेता बनना है , " --पैर पटक - पटक कर भोलूआ आज जिद पर आन पड़ा । कम अक्ल होने के बावजूद भोलूआ अपने भोलेपन के कारण गाँव भर का दुलारा था ।
बापू तो सुनते ही चक्कर खा गया । बिस्कुट ,चाकलेट और मेले घुमाने तक के सारे जिद तो आसानी से पूरा करता आया था , लेकिन बुरबक , अबकी कहाँ से नेता बनने का जिद पाल लिया । सोचे कि चलो गुड्डे- गुडि़या वाला नेता बना देंगे । रामलीला वाले सुगना से नेता जी का ड्रेस माँग के भी पहिराय देंगे , लेकिन भोलूआ का जिद तो असली नेता बनने से है । अब का किया जाये !
थोड़ी देर बाद ही चौपाल पर सबको इकट्ठा किया गया । सबकी नजर मुर्झाये से भोलूआ के चेहरे पर पड़ी तो मन भर आया । गाँव भर को ही जैसे भोलूआ का नेता बनने की चिंता ने आ घेरा । अब भोलूआ को नेता तो बनाना ही पडेगा क्योंकि श्यामलाल जी , जो दुनिया भर की जानकारी रखते है उनकी बातों का कोई काट नहीं है , वे बोल दिये है कि नेता बनने का दौरा नेता बनने से ही जायेगा ।
भोलूआ ,आखिर पूरे गाँव का अपना दुलारा बच्चा है ,जैसे नंदगांव में कृष्ण हुआ करते थे ।
!
आखिर बच्चे की चाहत का सवाल है । अब यह नेता बने तो बने कैसे ? मिलकर तय हुआ कि धनुआ नाई के पास चला जाये । धनुआ नाई का नेता लोगों के दाढ़ी बनाने के लिये वहाँ रोज का आना -जाना है । इतिहास गवाह है कि नाई राज -रजवाड़ों के भी राजदार हुआ करते थे तो जरूर नेताओं के भी जरूर वह राजदार होगा । वही बतलायेगा कोई नया रास्ता ।
धनुआ अपने घर इतना भीड़ देख सकपका गया । एकदम से चिल्ला उठा , " ये नेता बनकर कहाँ घुस आये हो आप लोग ! "
" देखो वो नेता बोला , मुझे नेता बोला ,मै नेता जरूर बनूँगा ।" भोलूआ के उम्मीदों को मानों पंख लग गये ।
" अरे ,जहाँ भीड़ वहीं नेता ! आपके पास भीड़ तो आपका नेता बनना पक्का ! " -बापू भोलूआ के सिर पर हाथ फेर उम्मीद से सहला दिये ।
गाँववालों को मानों धनुआ नाई नहीं बल्कि पारस पत्थर मिल गया था , सब घेर कर उसको ध्यान से सुनने लगे ।
" लेकिन एक चीज़ की कमी आड़े आ सकती है आपके नेता बनने में ! " धनुआ गंभीर हो उठा।
" कौन से चीज़ की कमी...? " मुश्किल से सब्र रखे हुए सब एक साथ ही बोल उठे ।
" ध्यान से सुनो , यह बहुत राज की बात है । सभी नेताओं के पास यह होता है । जिस नेता के पास इसकी कमी होती है वो दुमकटा कहलाता है --" धनुआ फुसफुसा कर कहा ।
" हैss , दुमकटा ! नहीं , नहीं , मुझे दुमकटा नेता नहीं , अच्छा नेता बनना है ।" भोलूआ का धैर्य टूट रहा था ।
"अरे , पहली मत बुझाओ , का होना जरूरी होता है । हम सब ले आयेंगे । ईहाँ , लडका का प्राण निकल जायेगा , देर ना करो ,बताओ !" भोलूआ के बापू अधीर हो उठे ।
" अरे ,हम भी अधिक तो नहीं जानते है, लेकिन वे कोई " संकल्प " की बात करते है , कि नेता के पास जनता को दिखाने को कुछ हो ना हो, " भीड़ " और "संकल्प" , ई दुई चीज़ दिखाना बेहद जरूरी होती है । भीड़ तो आपके पास है ही बस संकल्प का जुगाड़ कर लीजिये। "
" ओ भगवानलाल ,इधर आ ,सुन , तुम कल तड़के ही शहर निकल जाना , चाहे जितनी भी महंगी हो , संकल्प खरीद कर ही लौटना । सुने है वहाँ शहर में पढे -लिखो के तबके में ,रोज संकल्प गढे जाते और बेचे जाते है । "
कान्ता राॅय
भोपाल

तुम्हारा हक़/लघुकथा

बेहाल होकर वह मोहित को एकटक देखे जा रही थी। चादर से ढका शव, शान्त चेहरा , सब्र आँखों से टूट कर बह रहा था , लेकिन रुदन हलक में जैसे अटक गया हो ,--" क्या हुआ तुम्हें ? आँखे न खोलोगे मोहित , देखो , मैं बेसब्र हो रही हूँ। क्या तुम यूँ अकेला मुझे छोड़ जाओगे ? तुमने तो कहा था, कि तमाम उम्र मेरा साथ दोगे, फिर ऐसे बीच राह में मुझे छोड़ , कहाँ , क्यों ? "-- होठों पर ताले जडे हुए थे , लेकिन आँखों ने सारी मर्यादा तोड़ दी थी.
उसे एहसास हुआ दो नज़रों का घूरना , वह ग्लानि से भर उठी। अपराधी थी उन दो नज़रों की। शायद उसको यहां आने का , इस मातम का अधिकार नहीं था।

उसके मंगलसूत्र और सिन्दूर का कोई मोल नहीं था समाज की नज़र में , जो मोहित ने मंदिर में सात फेरे लेते हुए पहनाये थे । सूनी नज़र अब तक टिकी हुई थी उस पर , वही थी असली हकदार , इस शव पर रोने की। वह पत्नी कहलाती थी और इनके बच्चों की माँ भी ,
पर वह किस अधिकार से यहां ......? सिर्फ प्यार का रिश्ता ? अंतरंगता का रिश्ता ? ये रिश्ता मंगलसूत्र और चुटकी भर सिंदूर देकर भी, उसकी विधवा कहलाने का अधिकार नहीं देता है ।
बार -बार कहता था कि , ---- सुमि , मेरा नाता सिर्फ तुम से है , देखना एक दिन तुम्हें तुम्हारा हक़ जरूर मिलेगा।
मन हो रहा था , दोनों हाथो में उनके चेहरे को लेकर देखू , छूकर देखू । अक्सर कहते थे कि --तुम्हारे स्पर्श से मैं मरता हुआ भी जी उठूंगा ,
वह छूना चाहती थी उसे , लिपटकर रोना चाहती थी , शायद उसकी प्रीत की गर्मी से जाग जाए और खड़े होकर कहे एकदम से कि --देखो मैं ना कहता था , कि तुम्हारे छूने भर से, मैं मरता जी उठूंगा !
अचानक आस -पास सरगर्मी बढ़ गयी, महिलाओं ने विधवा होने की रस्म- अदायगी शुरू कर दी। उसे भी ये रस्म निभानी थी उनके नाम की ,लेकिन ....... ? वह छटपटा उठी , कैसे संभालेगी अब स्वयं को यहां........!
"आपको वहाँ बुलाया जा रहां है "
"कहाँ ? " वह चौंकी !
नज़र सामने जाकर , टकराकर , वापस गुनहगार सी झुक गयी।
" आ बैठ यहां , तुझे भी तो ये रस्म करनी है ! "
स्तब्ध सी बैठ गयी ,
"वह , मुझसे अधिक तेरा ही था। चल , उसके जिन्दा रहते न सही , लेकिन उसकी विधवा होकर तो साथ रह ! " --
देर से हलक में अटकी हुई हिचकियों ने विलाप के सारे बाँध हठात तोड़ दिए।


कान्ता राॅय
भोपाल

लक्ष्य की ओर /लघुकथा

लक्ष्य को संधान कर , संकल्प को साथ ले , वह बस्ती से विदा हुआ । कच्चे रास्ते और मंजिल दूर ,लेकिन इरादा पक्का था ।
एक मुसाफ़िर की निगाह संकल्प पर पड़ी , वह मुग्ध हो उठा ,
"क्या इसका सौदा करोगे ? ढेरों रूपये दूंगा ! " 
-- सुनते ही वह उखड़ गया।

" नहीं ! " -- उसकी फटी हुई कमीज़ में से झांकती चिपकी , लिज़लिज़ी गरीबी भी सहम गयी। संकल्प का हाथ थाम , आगे बढ़ गया ।
थोड़ी दूर और जाने पर एक दयावान यात्री उसके पैरों के छालों में से रिसता हुआ मवाद की मानिंद , उसके आत्मबल को भी रिसता हुआ जान , संकल्प के बदले एक चमचमाती मोटर - गाड़ी देने की पेशकश की ।
एक नजर उसने अपने पैरों की तरफ देख , उसकी तरफ आँखें तरेर , संकल्प का हाथ और अधिक कस , गर्वोन्नत- हो, अपनी चाल तेज कर ली ।
लक्ष्य दूर था अभी भी , कि पास गुजरते व्यक्ति का दिल भी संकल्प पर अटक गया । उसके दर-दर भटकने को बेवजह बताते हुए संकल्प के सौदे में एक आलीशान मकान देने की बात कही । वह थक चुका था । संकल्प को देर तक जकड़े रहने के कारण हाथ में झुनझुनी उठ रही थी । घर की कामना या संकल्प······?
अँगुलियों के इशारे से उसको दूर रहने को कह ,बड़ी ही अकड़ से आगे बढ़ गया । इन सब बातों को देख सुन रहे अन्य यात्री प्रभावित हुए । वे लोग उसकी जय -जयकार करने लगे ।
यात्रा पूर्ण हुई कि , हठात् नजदीक से गुजरता हुआ राजनेता का काफिला उसे देख कर रूक गया । एक कार्यकर्ता गाड़ी के पास जाकर राजनेता के कान में फुसफुसाते हुए कुछ कहा , वे एकदम से चौंक उठे । नेता जी गाड़ी में से बाहर आ , उसके समक्ष अति विनम्र भाव से हाथ जोड़ , सविनय निवेदन किये , --" मै आपको अपने मंत्री मंडल में शामिल कर लूंगा , बदले में आप अपना संकल्प मुझे दे दें। "
सुनकर वह ठिठका , अपनी फटी हुई कमीज़ में चिपकी, लिज़लिज़ी गरीबी और पैरों के छालों में से रिसता हुआ मवाद देख तनिक देर सोचा ····· ! पीछे जय जयकार अभी भी जारी थी । आँखें चौंधियाईं , एक स्मित मुस्कान होंठों पर फ़ैल गई । उसने संकल्प का हाथ छोड़ दिया ।

कान्ता राॅय
भोपाल

कागज़ का गाँव/लघुकथा


जीप में बैठते ही मन प्रसन्नता से भर रहा था। देश में वर्षों बाद वापसी , बार -बार हाथों में पकडे पेपर को पढ़ रही थी , पढ़ क्या रही थी , बार -बार निहार रही थी। सरकार ने पिछले दस साल से इस प्रोजेक्ट पर काम करके रामपुरा जैसी बंज़र भूमि को हरा -भरा बना दिया है।गाँव की फोटो कितनी सुन्दर है , मन आल्हादित हो रहा था। उसका गाँव मॉडल गाँव के तौर पर विदेशों में कौतुहल का विषय जो है !
बस अब कुछ देर में गाँव पहुँचने ही वाली थी। दशकों पहले सुखा और अकाल ने उसके पिता समेत गाँव वालो को विवश कर दिया था गावं छोड़ने के लिए।
"अरे , ये कहाँ , चक्कर पर चक्कर लगा रहे है आप ,गाँव की तरफ गाडी घुमाइए। " -- मीलों निकल आने के बाद भी दूर -दूर तक सुखा , ह्रदय बैठा जा रहा था।
" मैडम आप के बताये रास्ते से ही जा रहे है , मुझे तो यहां आस -पास बस्ती दिखाई ही नहीं दे रही । सन्नाटा ही सन्नाटा है , इंसानो की तो क्या , लगता है कि चील -कौए की भी यहां बस्ती नहीं है। "
" क्या ! सामने जरा और आगे चलो , पेपर में तो बहुत तरक्की बताई है गाँव की , इसलिए तो हम गावं में बसने की चाहत लिए विदेश में सब कुछ बेच आये है ! "
"और कितना आगे लेकर जाएँगी , गाड़ी में पेट्रोल भी सीमित है "
" रुको गूगल सर्च करती हूँ " - कहते हुए लैपटॉप निकाली , ओह ! नेटवर्क ही नहीं ......... , बेचैन होकर फिर से गाँव को पेपर में तलाशने लगी।
" मैडम , कागज़ का गाँव था लगता है उड़ गया "

कान्ता रॉय
भोपाल

मक्खन जैसे हाथ / लघुकथा


नई -नवेली दुल्हन सी वह आज भी लगती थी । आँखों में उसके जैसे शहद भरा हो । पिता की गरीबी नें उसे उम्रदराज़ की पत्नी होने का अभिशाप दिया था । उसका रूप उसके ऊपर लगी समस्त बंदिशों का कारण बना ।
उम्रदराज और शक्की पति की पत्नी अपने जीवन में कई समझौते करने के कारण कुंठित मन जीती है ।
आज चूड़ी वाले ने फिर से आवाज लगाई तो उसका दिल धक् धक धड़कने लगा । वह हमेशा की ही तरह पर्दे की ओट से धीरे से उसे पुकार बैठी , " ओ , चूड़ी वाले ! "
उसके मक्खन से हाथों में छुअन से होने वाले सिहरन का प्यार भरा एहसास देने वाले उस चूड़ी वाले का बडी़ शिद्दत से इंतजार किया करती थी ।
चुड़ीवाले ने हमेशा की तरह वहीं बाहर बैठ कर अपना साजों सामान पसार लिया । उसे मालूम था कि इस मक्खन जैसे हाथों वाली को सिर्फ हरे रंग की चूड़ियाँ ही अच्छी लगती है । पसारे हुए सभी चूडियों में धानी रंग की चूडियों पर पर्दे की ओट से मक्खन जैसे हाथों वाली की अंगुलियों ने इशारा किया ।
अब मक्खन जैसे हाथ, चुड़ी वाले के खुरदरे से हाथों में , देर तक , बेचैनी और बेख्याली के पल को जी रही थी ।

कान्ता राॅय
भोपाल

अधजली /लघुकथा


क्या कसूर था उसका ? मन बेबस हो ,बार - बार डायरी के पन्ने पर लिखे उसके नाम पर जाकर ठहर जाती थी। एकटक देखती जाती ,मानो नाम में उसके अक्स दिखते हों , इबारत कर रही थी वह ....! अंगुलियों को फिराते हुए सहला रही थी उन जख्मों को भी , जो वह दे गया था ।
"उमाsss ! कहाँ भावमग्न हो रही है तु ?"

"कहीं नहीं रे ? "- उसने चौंक कर डायरी बंद कर ली , शायद फिर से चोरी पकड़ी गई थी । जिगरी थी और बरसों से रूम पार्टनर भी।

"तुमने सीधी माँग काढ़ ली ? फिर से उसकी याद लेकर बैठ गई क्या ? "

" वह कहता था मेरे तीखे ,सलोने नैन -नक्श पर यह बहुत फबते है । " उसके आँखों में करूण भाव तैर गये ।

" इस द्वंद से निकलो , नहीं तो जी नहीं पाओगी " गंम्भीर स्वर में कहते हुए वह अंदर तक सिहर उठी।उसकी व्यथा - वेदना की सालों से गवाह रही हैै ।

" उसने कहा था मेरा इंतज़ार करना " आर्तनाद करती हुई छल से छलक पडीं ।

" चार साल हो गये है , एक बार पलट कर फोन नहीं किया उसने , मैने कहा था तुझसे कि शहर से बाहर जाते ही वह पलट कर एकबार भी नहीं देखेगा "

" मुझे बात नही करनी है इस विषय में , मेरी आज की डाक कहाँ है ? " हाथ पकड़ कर आगे कहने से रोक लिया ।शायद वह सच को स्वीकारना नहीं चाहती ।

" यह ले ,मर-खप सारी जिंदगी इन्ही दफ्तरों के डाक समेटती , मुझसे कुछ ना छुपा है तेरा , मालूम है मुझे , तू क्या ढूंढा करती है इनमें। " कहती हुई वह बाहर की तरफ चली गई ।
उस बेवफा से एक तरफा रूहानी -रिश्ता .......! इस अभागी को बता भी नहीं सकती कि उसने तो पिछले साल ही मिठाई के डब्बे के साथ शादी का कार्ड भेजा था । चुल्हा में फेंका हुआ कार्ड तो जल गया पर , यह अधजली .......!

कान्ता राॅय
भोपाल

स्पेशल सेलिब्रेशन /लघुकथा

अखबार के इस काॅलम पर नज़र पडते ही दिल में दबी ख्वाहिशें करवट बदलने लगी । "न्यू ईयर सेलिब्रेशन "का कम्प्लीट पैकेज का व्यौरा दिया हुआ था ।
इंडियन ,चाईनीज ,काॅन्टिनेंनटल फूड , सुप ,स्टार्टर के साथ इंटरटेनमेंट के लिए कई चौंकाने वाले खेल और यह क्या ! "मास्क डाँस विथ पार्टनर" ....... आँखें सिकुड़ने लगी , दिल बल्लियों सा उछलने लगा , दृश्य आँखों के सामने सजीव हो उठा था ।
हृदय गति बेकाबू हो धक -धक .... , शायद ऐसी ही पार्टियों के बारे में उसने सुन रखा था कि डाँस करते हुए लाईट बंद हो जाती है और आपस में पार्टनर की बदला - बदली ....उफ्फ ! यार , लाईफ में एक बार तो इस सेलिब्रेशन का हक बनता ही है । चार्ज भी अधिक नहीं है ।
इस बार बस , पूरा मजा ! पत्नी राजी होगी ? अरे , मना लेंगे ,इसमें क्या है ! जरा सा नाटकबाजी चलेगा उसका , लेकिन उसको भी तो .......!
पत्नी नें पिछली बार तिरुपति प्लाॅन करके न्यू ईयर सेलिब्रेशन का तो बाजा बजा दिया था । खाक मजा ! नाहक ही फालतू खर्च हुए थे । उस खर्च से कम ही है यह ! पत्नी से कह देंगे कि इस बार हम यहीं जायेंगे ।
लपलपाती नजर , मास्क पहने बाॅल डाँस के ख्वाब लिये , खुशी से काँपते हाथों से फोन को उठा बुकिंग कन्फर्म करवाने को अखबार में नम्बर ढूंढने लगा ।
" सुनो ! " अच्छे काम के वक्त पत्नी का इस तरह बीच में टोकना उसे कभी से पसंद नहीं आया ।
" क्या है ? " इस व्यवधान से वह झल्ला उठा ।
" अरे ,चिल्लाते क्यों हो , तुम्हारे काम की ही बात करनी है ।"
अरे वाह , क्या वह भी इसी न्यू ईयर सेलिब्रेशन की बात करने वाली है ......!
" हाँ , डाॅर्लिंग , बोलो क्या बात है ? " अावाज में शहद घुल उठा था ।
" लो सम्भालो टिकट , हम इस बार सपरिवार वैष्णो देवी व कश्मीर जायेंगे । पापा जी को भी फोन कर दिया है । "
मास्क , बाॅल डाँस , .... पार्टनर , बत्ती गुल .... सब के सब धुँधलाती आँखों के आगे काले- काले साये बन कर घुमने लगे ।

कान्ता राॅय
भोपाल

परख/लघुकथा

" आइये ,अपनी कुर्सी पर विराज लीजिए ।" इतना तंज ! ऐसे कह गये वे जैसे उसके सिर पर ही बैठने वाली हो ।
"जी , अब काम समझा दिजीए कि मेरा काम क्या होगा यहाँ ?" उनके लहजे से अपमानित सा महसूस कर रही थी । क्या इनके साथ ही काम करना होगा उसे ? कैसे झेलेगी ? हृदय रूआँसा हो रहा था ।
" अरे ,आप क्या काम करेंगी ? आप तो बस पगार उठा कर ऐश करेंगी , काम तो हमें करना होगा ।" वह चिढ़ कर बोला ।
"मतलब ?" सुनकर अनमना उठी । सतीश ,आप कैसे झेलते रहे होंगे ऐसे लोगों को , पति की याद में आँसू छलक उठे ।
" हुँ ह ,अनुकंपा नियुक्ति जो ठहरी ! आपको आता क्या है , जो काम करेंगी ! इससे अच्छा था कि आपको घर बिठाकर ही पगार ....." बातों में कटाक्ष की पैनी धार सीने को भेदती सी उतर गई ।
" पहले काम तो सिखा कर देखिए , अनाधिकारिक रूप से नहीं आई हूँ यहाँ , पढी - लिखी हूँ , आपसे वादा है अपनी मेहनत और लगन से इतना काम करके दुंगी आपको कि , मै अनुकंपा नियुक्ति नहीं , कुर्सी की हकदार लगुंगी ।" सहन करने की क्षमता ने जबाव दे दिया था ।
" अकड़ तो बहुत है , लिजिये यह फाइलें ,पढिये और समझिए , ना समझ में आये तो मै यही बगल वाले सीट पर ही हूँ । " मुस्कुरा कर वह अचानक से सौम्य हो गये ।
अचानक आत्मीयता ?
ओह ! नयी सोच , उसके मनोबल को परखा जा रहा था । आॅफिस में भी रैगिंग ..... वह मुस्कुरा उठी ।


कान्ता रॉय
भोपाल

कलेजे पर ठूँकी कील /लघुकथा

"हमारे हाथों की बनी इन अगरबत्तियों ने कितनी धूम मचा दी है बाजार में ।" खुश्बूओं से सराबोर लोईयों को हथेलियों पर रगड़ती मसलती हुई रमा दर्प से भर गई ।
"और अपने हाथ जो काले हो रहे है सो , इसका क्या ?" अपनी काली हाथों को देखकर लता अनमना उठी ।
"अरे ,चुप कर हठेली , हाथ ही काले हो रहे है ना इस कमाई में , इज्ज़त तो धप्प सी उजली चमक रही है !
जा , वहाँ साबून की बट्टी से हाथ रगड़ कर साफ कर आ ,पल भर में यह भी चमक जायेंगे । " चूरे को मिलाती हुई जीजा बाई उसे समझा अपने काम में लगी रही ।
"इसे तो जब देखो काया की चिंता ही लगी रहती है ।
राधा बाई बिना बताये , पिछले कई दिनों से काम पर नहीं आ रही है ? " रमा को अचानक राधा की अनुपस्थिति का भान हो आया ।
चुहल करने में जरा भी पीछे नहीं रहती थी वह भी ।
" उस दिन मालिक कच्चा - माल लाने उसको साथ लिवा गये थे ,उसके बाद से ही काम पर नही लौटी । " लता की आँखों में चिंता की हलकी लकीर तैर गई ।
"मालिक को बता कर ही छुट्टी पर गई होगी फिर तो !" गहरी साँस लेते हुए रमा ने तर्क दिया ।

" शायद " आज सुबह उस पर गहराती मालिक की निगाहों को याद करके लता सिहर उठी ।
सब सुन कर सीता बाई की बुढ़ी आँखों में चिंता की लकीरें खींच गहराती गई । एक पल ठहर ,गहरी साँस ले , फिर जोर जोर से अगरबत्तियों को आकार देने लगी ।
" ऊँह , मालिक ! कौन सा कच्चे - पक्के लेन देन किये उसके साथ अभी बताऊँ तो .....! " दूर से सबको कुछ कहने को उठती कम्मो की आवाज घुटकर ही रह गई , पीछे से अचानक किसी कर्मचारी की हथेलियों ने मुँह कसकर दबा दिया ।
" साली , एक राधा के लिए यहाँ सैकड़ों की रोटी पर तालाबंदी करवायेगी क्या ?"
काठ से कलेजे पर एक कील ठक्क से , फिर ठोंक दी गई ।

कान्ता राॅय
भोपाल