शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

कलेजे पर ठूँकी कील /लघुकथा

"हमारे हाथों की बनी इन अगरबत्तियों ने कितनी धूम मचा दी है बाजार में ।" खुश्बूओं से सराबोर लोईयों को हथेलियों पर रगड़ती मसलती हुई रमा दर्प से भर गई ।
"और अपने हाथ जो काले हो रहे है सो , इसका क्या ?" अपनी काली हाथों को देखकर लता अनमना उठी ।
"अरे ,चुप कर हठेली , हाथ ही काले हो रहे है ना इस कमाई में , इज्ज़त तो धप्प सी उजली चमक रही है !
जा , वहाँ साबून की बट्टी से हाथ रगड़ कर साफ कर आ ,पल भर में यह भी चमक जायेंगे । " चूरे को मिलाती हुई जीजा बाई उसे समझा अपने काम में लगी रही ।
"इसे तो जब देखो काया की चिंता ही लगी रहती है ।
राधा बाई बिना बताये , पिछले कई दिनों से काम पर नहीं आ रही है ? " रमा को अचानक राधा की अनुपस्थिति का भान हो आया ।
चुहल करने में जरा भी पीछे नहीं रहती थी वह भी ।
" उस दिन मालिक कच्चा - माल लाने उसको साथ लिवा गये थे ,उसके बाद से ही काम पर नही लौटी । " लता की आँखों में चिंता की हलकी लकीर तैर गई ।
"मालिक को बता कर ही छुट्टी पर गई होगी फिर तो !" गहरी साँस लेते हुए रमा ने तर्क दिया ।

" शायद " आज सुबह उस पर गहराती मालिक की निगाहों को याद करके लता सिहर उठी ।
सब सुन कर सीता बाई की बुढ़ी आँखों में चिंता की लकीरें खींच गहराती गई । एक पल ठहर ,गहरी साँस ले , फिर जोर जोर से अगरबत्तियों को आकार देने लगी ।
" ऊँह , मालिक ! कौन सा कच्चे - पक्के लेन देन किये उसके साथ अभी बताऊँ तो .....! " दूर से सबको कुछ कहने को उठती कम्मो की आवाज घुटकर ही रह गई , पीछे से अचानक किसी कर्मचारी की हथेलियों ने मुँह कसकर दबा दिया ।
" साली , एक राधा के लिए यहाँ सैकड़ों की रोटी पर तालाबंदी करवायेगी क्या ?"
काठ से कलेजे पर एक कील ठक्क से , फिर ठोंक दी गई ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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