शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

तुम्हारा हक़/लघुकथा

बेहाल होकर वह मोहित को एकटक देखे जा रही थी। चादर से ढका शव, शान्त चेहरा , सब्र आँखों से टूट कर बह रहा था , लेकिन रुदन हलक में जैसे अटक गया हो ,--" क्या हुआ तुम्हें ? आँखे न खोलोगे मोहित , देखो , मैं बेसब्र हो रही हूँ। क्या तुम यूँ अकेला मुझे छोड़ जाओगे ? तुमने तो कहा था, कि तमाम उम्र मेरा साथ दोगे, फिर ऐसे बीच राह में मुझे छोड़ , कहाँ , क्यों ? "-- होठों पर ताले जडे हुए थे , लेकिन आँखों ने सारी मर्यादा तोड़ दी थी.
उसे एहसास हुआ दो नज़रों का घूरना , वह ग्लानि से भर उठी। अपराधी थी उन दो नज़रों की। शायद उसको यहां आने का , इस मातम का अधिकार नहीं था।

उसके मंगलसूत्र और सिन्दूर का कोई मोल नहीं था समाज की नज़र में , जो मोहित ने मंदिर में सात फेरे लेते हुए पहनाये थे । सूनी नज़र अब तक टिकी हुई थी उस पर , वही थी असली हकदार , इस शव पर रोने की। वह पत्नी कहलाती थी और इनके बच्चों की माँ भी ,
पर वह किस अधिकार से यहां ......? सिर्फ प्यार का रिश्ता ? अंतरंगता का रिश्ता ? ये रिश्ता मंगलसूत्र और चुटकी भर सिंदूर देकर भी, उसकी विधवा कहलाने का अधिकार नहीं देता है ।
बार -बार कहता था कि , ---- सुमि , मेरा नाता सिर्फ तुम से है , देखना एक दिन तुम्हें तुम्हारा हक़ जरूर मिलेगा।
मन हो रहा था , दोनों हाथो में उनके चेहरे को लेकर देखू , छूकर देखू । अक्सर कहते थे कि --तुम्हारे स्पर्श से मैं मरता हुआ भी जी उठूंगा ,
वह छूना चाहती थी उसे , लिपटकर रोना चाहती थी , शायद उसकी प्रीत की गर्मी से जाग जाए और खड़े होकर कहे एकदम से कि --देखो मैं ना कहता था , कि तुम्हारे छूने भर से, मैं मरता जी उठूंगा !
अचानक आस -पास सरगर्मी बढ़ गयी, महिलाओं ने विधवा होने की रस्म- अदायगी शुरू कर दी। उसे भी ये रस्म निभानी थी उनके नाम की ,लेकिन ....... ? वह छटपटा उठी , कैसे संभालेगी अब स्वयं को यहां........!
"आपको वहाँ बुलाया जा रहां है "
"कहाँ ? " वह चौंकी !
नज़र सामने जाकर , टकराकर , वापस गुनहगार सी झुक गयी।
" आ बैठ यहां , तुझे भी तो ये रस्म करनी है ! "
स्तब्ध सी बैठ गयी ,
"वह , मुझसे अधिक तेरा ही था। चल , उसके जिन्दा रहते न सही , लेकिन उसकी विधवा होकर तो साथ रह ! " --
देर से हलक में अटकी हुई हिचकियों ने विलाप के सारे बाँध हठात तोड़ दिए।


कान्ता राॅय
भोपाल

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