शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

सूजा/लघुकथा


काॅलेज दूर होने के कारण लोकल ट्रेन में अब रोज सफर करना होगा । लेकिन उस भीड़ का क्या ......? मन घबरा रहा था । कैसे मैनेज करेगी उन अनचाहे स्पर्शों को जो भीड़ का फायदा उठा कर कोंचती कुहनियों और सरसराती अंगुलियों से उसकी आत्मा को छलनी करते फिरेंगे ? दिल बैठ रहा था ।
" हो गई तैयार ? ये ले टिफिन , सब अच्छे से रख लिया है ना ? देख वक्त का ख्याल रखना । जब तक लौटकर नहीं आओगी , मुझे चिंता रहेगी तुुम्हारी ! "
" जी , मम्मी , सब रख लिया , लेकिन लोकल की भीड़.......! कैसे मैनेज करूँगी मै ? "
" बाहर कदम रखने से पहले मनःस्थिति को मजबूत करना तो जरूरी है । जरा रूक ! यह ले , इसे ट्रेन में चढते वक्त अपनी मुट्ठी में कसे रखना । "
" यह तो सूजा है ! "
" हाँ , भीड़ में स्वंय के बचाव का एक आधार भी ! "
" माँ ,तुम भी .....? "
" हाँ , स्त्रीत्व को दंश देने वाले उनके सूजे के जबाव में यह हमारा सूजा । " सुनते ही वह खिलखिला उठी ।

* सूजा ,बोरा सिलने वाली मोटी सूई


कान्ता राॅय
भोपाल

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