शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

घर के भगवान /लघुकथा


दरवाजे को जब घर के बुजुर्ग के मुँह पर धकेला गया तो गुस्से से भरा हुआ वह "धमाक से " बहुत तेज आवाज कर बैठा । बाहर मूसलाधार बारिश , कुण्डी भी दर्द से चटक उठी।
वह इन सबसे अनजान रसोई में , ऑफिस से आये पति के चाय- पानी के इंतजाम में लगी हुई थी। अचानक बिजली की तड़तड़ाहट से घबड़ा उठी , जैसे कही दूर बादल फटा हो , मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी।
खिड़की जोर -जोर से खड़कने लगी। वह खिड़की बंद करने को तेजी से बढ़ी कि चौंक उठी , "ये यहां कैसे ? " सास-ससुर बारिश में सड़क पर.....! उसका मन एकदम से विचलित हो उठा , " अरे ,देखो , बाहर पापा जी हमारा घर ढूंढ रहे है , लगता है घर का नम्बर नहीं मिला , मैं जल्दी से लिवा लाती हूँ। "
"रुको जरा , मैंने बाहर से वापस भेज दिया है उनको , लिवाने की जरुरत नहीं है " - टाई की नॉट ढीली करते हुए वह खिन्न था ।
"ऐसा क्यों किया ? वो पिता है हमारे " -एकदम से स्तब्धता छा गई थी।
"पैसे तो वक़्त पर भेजता हूँ ना, यहां आने की क्या जरुरत थी उनको "- इतनी रुखाई ,वह अनमना उठी।
" माता -पिता घर के भगवान होते है , मत भूलो , हमारे भी बच्चे है ! "
"तुम नहीं जानती , मैंने जीवन भर झेला है इनको । चलो जल्दी से खिड़की बंद करो " - खिड़की ने सहम कर दरवाजे की और देखा ।
" नहीं , ये खिड़की बंद नहीं होगी , तुमने झेल ली है , अब मेरी बारी है झेलने की " - जोर से उसको डपट लगाते हुए वह दरवाजे की ओर बढ़ी कि दरवाजा और कुण्डी दोनों चहक कर खुल गए । सहसा दीवारों में उतरती हुई नमी भी गायब हो गयी ।

कान्ता रॉय
भोपाल

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