बुधवार, 13 अप्रैल 2016

आदमी और थाली / लघुकथा


" गरीब आदमी अौर कुत्ता दोनों की हैसियत बराबर होती है । नामुराद , दुत्कार में जीने वाले " यूनिवर्सिटी से बाहर निकलते हुए सड़क के कोने पर भिखारी की तरफ देख उसका मुँह कसैला हो गया ।
" गरीब आदमी और कुत्ता , ये कैसी बराबरी हुई भला ! क्या बेहूदगी है ? " उसने अपनी कमीज़ को नीचे खींच , पेंट की जेब को ढकते हुए कहा ।
" देखते नहीं , कैसे खा रहे है जमीन पर , दोनों को सिर्फ अपना पेट भरने तक ही मतलब होता है , आक थू ! "
" आह ! क्या कह रहे हो ? अपने पेट तक तो , हम सब भी आज सिमट गये है , क्या राजा क्या रंक ! "
" मतलब , तुम कहना क्या चाहते हो ? " वह बिदक उठा ।
" मतलब यही कि मै तुम्हारी बात से सहमत नहीं हूँ , आदमी चाहे गरीब हो , रहता वो आदमी ही है " उसकी नज़र खाना खाते हुए उस भिखारी के चेहरे पर जाकर अटक गई , मानों वह उसके चेहरे में किसी को ढूँढने की कोशिश कर रहा था ।
" चलो ,अब तुम साबित करो कि उस भिखारी में और कुत्ते में अंतर है ! " गरीबी से बेखबर अमीरी तमतमा कर रोष में आ गयी ।
" बहुत आसान है साबित करना " कहते हुए अपने जेब में ठूँसी हुई पिता के कर्ज़ को टटोल , सिहर उठा ।
" तो देर किस बात की , चलो साबित करके दिखाओ ! "
" वो खाने की थाली देख रहे हो "
" हाँ ,देख रहा हूँ ,सो ! "
" सिर्फ उस थाली ने भिखारी और कुत्ते में फर्क को कायम रखा हुआ है । "

कान्ता राॅय
भोपाल


जरा थम के चलना / गीत


रुक - रुक , ऐ दिल ,जरा थम के चलना
लम्बा सफर है, दूर है मंजिल, थम-थम के चलना
रुक - रुक ,ऐ दिल ,जरा थम के चलना -------
आयेंगी कई-कई बाधाएँ ,डर कर मत रहना
नदिया की धारा बनकर ,कलकल तुम बहना ,
रुक-रुक , ऐ दिल ,जरा थम के चलना -------
पग -पग , काँटों का चुभना , खून-खून तर लेना
आँख-मिचौनी ,हौसलों से , खेल सुख -दुख कर लेना
रुक-रुक ,ऐ दिल ,जरा थम के चलना -------
पीतल में सोने सी आभा,चमक-चमक ,छल का छलना
हाथ की रेखा ,कर्म सत्य है,प्यार के पथ पर ही चलना
रुक - रुक ,ऐ दिल ,जरा थम के चलना -------
पत्थर की बस्ती , पत्थर के दिल ,तुम पथरीली ना बनना
रात अंधेरी , बड़ी भयावनी , चाँद -चाँदनी बन खिलना
रुक- रुक ,ऐ दिल , जरा थम के चलना--------

कान्ता राॅय
भोपाल


गुमान का हश्र / लघुकथा


समभाव ,सम प्रकृति वाले दो खेतों के बीच अचानक एक मेड़ बना दिया गया । यह बदलते मौसम का असर था ।
मेड़ ऊँची , बहुत ऊँची होती जा रही थी । तरह - तरह की बातों की झाड़ियाँ उगने लगी खेत की छाती में । हवा भी गर्म हो चली थी ।
फसल का चोला डाल , कुछ गैर-प्राकृतिक तत्व खरपतवार की तरह चारों ओर बढ़ने लगे । खरपतवारों को अब अपने दिन फिरने पर गुमान हो रहा था । सुना तो था कि घूरे के भी दिन फिरते है मगर ऐसे फिरते है अब तक जाना नहीं था । वे इतराकर दिन-प्रतिदिन दुगुनी रफ्तार से बढ़ने लगे ।
बुवाई का समय नजदीक आने पर खेत मालिक खेत पर गया। उसने खरपतवार के मारे खेत का हाल-बेहाल देखा ,तो सहम गया ।
उसे अपने पिता की कही हुई बात याद आई कि “ कुत्ते का काटना और चाटना, दोनों ही अच्छाई के लिए हानिकारक है, ठीक वैसे ही ओछे व्यक्तियों से मित्रता और दुश्मनी । “
जरा भी देर ना करते हुए , खेत के मालिक नें खरपतवार की असलियत पहचान , उनमें आग लगवा दी । अब वे सब धू –धू कर जल रहे थे ।


कान्ता रॉय
भोपाल

                        

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

वायलिन की धुन / लघुकथा



थियेटर में अब सन्नाटा था । सब चले गये थे लेकिन वे दोनों वहीं बैठे रहे अपनी - अपनी सीट पर ।
बरसों बाद वह अपने शहर ,अपने थियेटर , लौट कर आया था । नये कलाकारों में पुराने रिश्तों को टटोलता हुआ , जब उसकी नजर कोने के सीट पर बैठी जूलिया पर पड़ी तो लगा , आज सारी मुराद पूरे होने के दिन है । अतीत साक्षात् हो उठा ।
एक वक्त था कि शहर का बच्चा - बच्चा उन दोनों का नाम जानते थे । अल्बर्ट और जूलिया की मशहूर जोड़ी , जब बैले करने के लिए मंच पर उतरती तो , पूरे हाॅल के लोगों की साँसें रूक जाती थी । सालसा का वो स्टेप किसी दूसरे के साथ कहाँ फिर कर पाया था . आज एक बार फिर वह सामने थी ।
अल्बर्ट इस कोने में और वो उसके विपरीत दूसरी कोने में ।क्यों बैठी है वो अब तक यहाँ ? उसको अपनी तरफ देखते हुए चोर नज़रो से देखा था उसने . क्या उससे बात नहीं करना है या पहल करने से घबराती है ? इतने जुड़ाव में ऐसी दूरी ! उसने ही आगे बढ़ने का निर्णय लिया ।
" हैलो जूलिया , कैसी हो ? " हाॅल का सन्नाटा तोड़ते हुए उसने शुरूआत की ।
" इस साधारण से थियेटर में विश्व का मशहूर बैले मास्टर क्या कर रहा है ? " उसके अावाज में खरखराती सी एक तीक्ष्ण तंज उभरी थी । वह चौंक उठा , अल्बर्ट के कानों में तो अब तक उसकी मीठी आवाज़ की आदत बनी हुई थी ।
" कैसी हो तुम ? " उसने खुद को संभालते हुए पूछा ।
" मै .....! " कुछ कहते हुए जरा ठहर सी गयी जैसे ,
" मै अच्छी नहीं हूँ , अगर यह कहूँ तो तुम क्या करोगे मेरे लिये अल्बर्ट ? " उसकी आवाज में फिर से वही आखिरी बार वाली मीठी सी कंपन को लौटते हुए महसूस किया उसने ।
स्वीडन जाने से पहले मिल नहीं पाया था , बता नहीं पाया था कि वह लौटेगा एकदिन , वह इंतजार करे उसका ।
" तुम्हारे लिये आया हूँ मै ,सब कुछ करूँगा जो तुम कहोगी " अल्बर्ट उद्वेलित हो उठा ।
" पैसा कमाने के लिए तुम मुझे छोड़ गये अल्बर्ट , शायद अब बहुत कुछ पा लिया होगा तुमने । यहाँ तलाश बेमानी है । क्या ढूंढना और अब क्या पाना ! " उसके दोनों आँखों के कोरो पर आँसू चमक गये । चेहरे की झुर्रियाँ थरथरा उठी ।
" लेकिन मै वापस वही वायलिन की धुन सी पूरानी जिंदगी चाहता हूँ तुम्हारे साथ " अल्बर्ट के आँखों में यकायक सपनों की फौव्वारे फूट पड़े ।
" वायलिन की धुन सी..... ! वायलिन तो उसी दिन टूट गई अल्बर्ट कभी ना सुधड़ने के लिये " वह उदासी से मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गई ।


कान्ता रॉय
भोपाल

                         

भयानक सपने का सच / लघुकथा


राजमहल के साजिशों की शिकार , मखमली जिंदगी जीने वाली राजकुमारी को अचानक सूखे रेगिस्तान में अकेले मरने के लिये छोड़ दिया गया ।
वह आँखों में दहशत लिये अपने चारों ओर देख रही थी ।
चाँद ,तारों और परीकथाओं में अब तक जीने वाली को , किसी ने मरूभूमि की बातें नहीं बताई थी ।
जीवन की विषमताओं से यकायक सामना !
तीव्र प्यास की अनुभूति हुई , पानी की तलाश में उसने गर्म रेत पर चलने की कोशिश की। उसके कोमल पैर छालों से भर उठे । वह आकुल , व्याकुल सी इधर -उधर ताकती !
धूप से बेहाल उसका गुलाबी रंग भूरा होने लगा । पैर रेत में धँसने लगे । वह अब काली पड़ती जा रही थी और कुछ ही देर में , अपनी कमर तक , गर्म रेत में धँसी , छटपटा रही थी , प्राण निकलने के समीप था कि रेत के अंदर , गहरे तक धँसे पैरों में उसने नमी का संचार महसूस किया ,
नमी पाकर उसका काला रंग , हरे रंग में बदलने लगा ।
उसके पैरों के नीचे से संचारित नमी , उसके अंदर छाती तक को तृप्त करने लगी ।
गर्म तप्त रेत और हवा की मार से , धीरे - धीरे उसके हरे बदन पर नुकीले काँटे उगने लगे । वह अंदर से नम और बाहर से सख्त काँटेदार हो चुकी थी ।
मरूथल में उसका आस्तित्व जिंदगी पाकर , तेज , नुकीले कांटो का सरताज कैक्टस बन तप्त भूभि में , अब फूल खिला रही थी ।

कान्ता रॉय
भोपाल

पिनकुशन - कैक्टस के गुलाबी फूलों के गुच्छे


पिछले कई दिनों से जब भी अपने बगीचे में जाता मन तिक्त हो उठता । बड़े ही जतन से उसने अपने बगीचे में ,रात की रानी और जूही की बेल लगाईं थी। साथ में मन मोहक गुलाब और बेला के झाड़ भी।
इन सबके बीच जाने कहाँ से एक कंटीला झाड़ बिना पोषित किये ही बढ़ उठा था। वह उसकी बढ़त से परेशान था ।
कई बार उसको काट कर हटाना भी चाहा , लेकिन हाथ बढाने से हमेशा पीछे हो उठता , कारण पिछले दिनों एक कंटीला झाड़ को हटाने के चक्कर में हाथों में ऐसे छाले पड़े कि महीनो डॉक्टर के चक्कर लगाने पड़े।
आज सुबह जैसे ही बगीचे में आया कि आँखें चौंधियाँ गयी।
" अरे , ये तो " पिनकुशन " निकला ! "
बागवान की नजरों में , अपने लिए मान देख " पिनकुशन " पूरे जोश में गुलाबी पुष्पों का गुच्छ लिए मोहक अंदाज में हठात जोर से खिलखिला उठा ।

कान्ता रॉय
भोपाल

बहकती गुलाल का ठौर / लघुकथा


भाँग छन रहे थे । रंग और अबीर से हवा भी रंगीन होकर इतरा रही थी ।
मंजीरे की थाप और ताल पर बहकते कदम ,होली के जश्न में बूढ़े ,बच्चे सब मस्त कि अचानक उसने उर्मिला की बाँह पकड़ी और घसीटते हुए गली के पिछवाड़े की तरफ ले आया ।
वह भी जैसे जाने को तैयार ही थी । उसके बदन से उठती उसकी खूशबू को पहचान वह प्रीत में डूबी , सुध - बुध बिसराये उसके साथ चली आई ।
दोनों एक दुसरे के बाहों में , गीले बदन रंग से सराबोर हो सिमटे हुए थे ।
पावों की नीचे जमीन चिकनी सी हो उठी और उनका फिसलना साथ - साथ ही हुआ । दुनिया से बेपरवाह जागती आँखों में सपनों का झूलना , मनचाहा रतन , दोनों पा रहे थे कि अचानक ढोलक के थाप रूक गये ।
गली में उठता शोर करीब आता हुआ सुनाई दिया । वे हड़बड़ा उठे ।
बाहों की जकड़ काँप कर ढीली हो, छूट गई ।
नीचे पड़ी ओढ़नी को उसने उठाया और उर्मिला के सिर को ढाँक दिया ।
उसे शायद मालूम था कि अगले पल क्या होने वाला है । आखिर उर्मिला यहाँ के पार्षद की बेटी थी और वह बेहद मामूली परिवार का लड़का ।
भीड़ की दर्जनों आँखें उन पर पड़ने से पहले , दो आँखें ममता भरी चमक उठी ।
" माँ , हमें बचा लो " उर्मिला के हाथ पैर बर्फ से ठंडे हो चुके थे ।
" वादा करो कि जब तक यह तुम्हारे लायक नहीं होता है तुम इससे कभी नहीं मिलोगी "
" आँटी ,मै वादा करता हूँ कि अब उर्मिला के लायक बन कर आऊँगा " वह उस ममतामयी के पैरों पर झुक गया ।
" यहीं लेकर आया था रामलोचन का छोरा उर्मिला को ... " भीड़ का शोर उछल कर सामने आ गया ।
" वो देखो ...., अरे भाभी आप यहाँ क्या कर रही है ......? "
" लाला , ये अबीर ,गुलाल बहकाने वाली चीजें है , चक्कर खाकर गिर पड़ी थी यहीं , इस रामलोचन के छोरे ने मुझे और मेरी जिंदगी को भटकने से बचा लिया । "

कान्ता राॅय
भोपाल

चौड़ी छाती / लघुकथा



" हमारी इज्ज़त के साथ नहीं खेल सकती है इस तरह " पिता का गम्भीर स्वर अब तक कानों को पिघला रहा था ।
उसकी नजरें झुकी हुई थी । चारों ओर बस धुँध और दूर जाती हुई जिंदगी ।
ऐसा लग रहा था जैसे वह हवा - पानी और धरती से आज बेदखल हो रही थी ।
जिंदगी मानो साँप सीढ़ी का खेल हो गया । इस प्रेम ने कहीं का नहीं छोड़ा !
ना सीढ़ी चढ़ पायी , ना ही नीचे गिर पाई ।

बचपन से किताबों में सद्भाव पढ़ते आई थी लेकिन , प्यार परवान चढ़ते ही , सद्भाव को भयानक जीव -जन्तु चबा - पचा गये और अपशिष्ट रूप में जाति-बिरादरी सामने आ गये।
सद्भाव वाला अध्याय , किताबों के पन्नों में ही डर के मारे दुबक कर सिमट गया ।
तब ईश्वर याद आये ।
ओह ! आज तो ईश्वर भी लाचार लगे । वरदान देने की ताकत तो अब उनके पास भी नहीं बची थी ।
परिवार या प्यार , मुकाबला बड़ा नाजुक था , अंततः उसने खुद को हराकर संस्कार को जीताने की तरफ अपने कदम बढ़ा दिये ,
क्योंकि समाज की चौडी छाती का सिमट जाना अच्छी बात नही होगी।

कान्ता राॅय
भोपाल

                                  

मौन / लघुकथा



वह एकटक देखे जा रही थी उसे । ठूँठ सा बना दिया गया था , या महज़ उसका दिखावा भर था ये ?
क्या उसे इजाज़त नहीं थी अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए ? कौन रोकेगा उसे ?

ऐसा तो नहीं , कि चुप रह कर वो संवेदनहीन कहलाने से बचने की कोशिश कर रहा था !
मिलन की गर्मी और प्रेम , अब बर्फ सा जड़ , पौरुषेय भाव में दम्भित पुरूष- प्रकृति सा खड़ा रहा देर तक ।
आह ! कायर पुरूष !

...... और वह अब धरती - सी , अपनी मिट्टी पर भरोसा रख , संवेदनाओं का संवहन करते हुए , टूटती हुई , संभल रही थी लौट कर आने वाले बसंत की आस में ।

अपनी क्षणिक आस्तित्व से अनजान बादलों के सहारे कुहरा , अभिमान में डूब कर हँसते - हँसते दोहरा हो रहा था ।
उसे भरोसा , संवेदनशीलता वगैरह मानवतावादी सोच , नादानियत लग रही थी ।
मंद –मंद मुस्कुराता हुआ सूर्य अभी कुछ देर और मौन रहना चाहता था । उसका मौन रहस्यमयी था ।

कान्ता रॉय
भोपाल

                           

मेरी माँ तो है ना ! / लघुकथा




नन्हीं-नन्हीं अँगुलियों में सुई -धागे थामे रंगीन नगों को मोतियों के साथ तारतम्य से उनको पिरोती जा रही थी।
भाव -विभोर हो बार -बार निहारती , मगन होकर परखती , कभी उधेड़ती , कभी गुंथती , फिर से कुंदन के रंगो का तालमेल बिठाती ।
धम्मम ......... से पीठ पर सुमी ने हाथ दिया तो एकदम से चौंक उठी । हाथ से छूटकर मोती ,नग ,कुंदन सब यहाँ -वहाँ बिखर गए।
" सुम्म्मी ........तुम ! देखो ना , तुम्हारे कारण सब बिखर गए , मुझे फिर से सबको गूंथना होगा। " हाथ में उलझी- सी बिखरी हार को देखते हुए वो निराश हो उठी।
" वाह ! कितना खूबसूरत है ये , अपने लिए बना रही हो ? " आधी - अधूरी बनी हार पर नज़र पड़ते ही उसके सौंदर्य से अभिभूत हुई ।
"नहीं "
"तो फिर किसके लिए इतना जतन कर रही हो ? "
" माँ के लिए , उनके लिए दुनिया का सबसे सुन्दर हार बनाना चाहती हूँ "
" क्याsss , माँ के लिए ? उस सौतेली माँ के लिए जो बात -बात पर तुम्हें सताती रहती है ! "
" सताती रहती है तो क्या हुआ , वो मेरी माँ तो है ! " प्रौढ़ होती बचपन की डबडबाई पनीली आँखों में सहसा हज़ारों नगों की रंगीनियाँ झिलमिला उठी।


कान्ता रॉय
भोपाल

                           

बदलती तस्वीर / लघुकथा







बेटे ने पिता के हाथ से बैग झटके से छीन दूर फेंक दिया ।
" कहीं नहीं जाना है ! "
" मुझे रोकेगा ? तेरी इतनी हिम्मत ! "
" हिम्मत तो बहुत है , कहिये तो दिखाता हूँ ? "
" गया जी जा रहा हूँ ,धर्म -कर्म करने , क्या तू मुझे अब धर्म करने से भी रोकेगा ? "
" धर्म -करम... ! .... हुंह ! ....... आप वसीयत बदलने के फ़िराक में हो , मैं सब जानता हूँ , धर्म -करम गया अब तेल लेने "
" कैसे रोकेगा बता ? " भृकुटि तान ली उन्होंने .
" ऐसे ! " झपट कर उसने पिता की गर्दन दबोच ली ।
"अब से इस कमरे के बाहर जो कदम भी रखे तो .....ये देख रहे हैं मिटटी के तेल से भरा हुआ कुप्पा ..... ! " सुनते ही बूढ़े के पूरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गयी।
जब से घर - जायदाद इस निकम्मे के नाम किया है , लगता है जैसे खुद को मारने का लाईसेंस दे दिया है ।
अब वसीयत बदलना क्या आसान होगा ...... ! इसी मनहूस लम्हें के लिए यह पूत पैदा किया था , सोचता हुआ क्रोध को धैर्य के नाम पर पी गया ।
बाहर गाड़ी रूकने की आवाज़ से उसके कान खड़े हो गये ,
" कहाँ है तेरा बाप , जरा सामने बुला कर तो ला " धम्म से कुछ लोग बाहर दरवाजे से अन्दर आये ।
जानी -पहचानी आवाज सुन वह कमरे से निकला , " मोs.....! " अपनी आँखों पर एक बार तो भरोसा ही नहीं हुआ ।
" मोहरसिंह .... अरे मोहरा तू ! " लंगोटिया यार को सामने पा वह हुलस कर गले लग गया । बचपन की बहुत सारी बातें याद आई ।
कसाई बने बेटे के चेहरे पर पल -भर में कई रंग आये और गये । उसके चेहरे पर छाई कठोरता , अब मुलायम सी हो गई ।
सदाचार और शिष्टाचार नें अपना रूप पैरों पर झुक कर दिखाया ।
"इधर कैसे ........ ? इतने सालों बाद खबर - सुधि लेने आया " बुढा चकित था वर्षों बाद इस तरह उसके आने से ।
मोहरसिंह की जागिरी किसी से छिपी नहीं थी । दो लट्ठबाज हमेशा उसके साथ ही रहते थे ।
वहीं कोने में पास खड़ा बेटा पिटारी के साँप सा सिकुड़ा - सिकुड़ा ..... पिता की आज्ञा पाने के लिए तत्पर श्रवणकुमार बन हाथ जोड़े खड़ा था ।
" यहीं पास में भटठे पर आया था तो किसी ने तेरे हालातों के बारे में बताया तो..............! तू कहे तो इनमें से एक को तेरी सेवा में छोड़ जाऊं "
" क्यों छोड़ जाएगा , निपूता थोड़े हूँ जो मेरी देख-भाल करने के लिए तू अपना आदमी छोड़ जाएगा " बुड्ढा छाती फुला कर ....अपने अंश , अपने पौरुष अपने जवान बेटे को नज़र उठा कर देखते हुए बोला ।


कान्ता राॅय
भोपाल


                                    

सत्य पर यकीन /लघुकथा




कलयुग अपने गति में सब पर बराबर नजर रख रहा था । इस बार भी पहले की तरह भक्त अम्बरीश के कई बार कहने बाद भी दुर्वासा ऋषि उनके अनुष्ठान के लिए वक्त नहीं निकाल पाए तो बुझे मन से ही आज उनको अनुष्ठान का आयोजन करना पड़ा।
अनुष्ठान के पश्चात उपस्थित समस्त संतजनों को भोजन करा कर निवृत हुए कि दुर्वासा ऋषि वहाँ उपस्थित हुए ।
दुर्वासा ऋषि को देखते ही अम्बरीश को मानो मन वांछित फल मिल गया और ऋषि दुर्वासा के चरण -पद की पूजा कर प्रसाद ग्रहण करने के लिए आग्रह किया तो " मैं जरा देर में वापस आता हूँ " , कहकर किसी जरूरी काम के लिए चले गए।
बहुत देर हुई दुर्वासा ऋषि नहीं आये । भक्त अम्बरीश की बेचैनी बढ़ती जा रही थी चाहकर भी ऋषि दुर्वासा से कोई संवाद स्थापित नही हो पा रहा था ।
वक्त निकल रहा था । वहाँ उपस्थित अन्य सभी वरिष्ठजनों ने प्रसाद ग्रहण करने का काल के बीतने को अशुभ बता कर डराया तो वे चरणामृत लेकर पारणा के लिए तैयार हुए कि इतने में दुर्वासा मुनि प्रगट हो गए और क्रोधित होकर कहने लगे कि ,
" तुमने मेरा इंतज़ार ना करके अपमान किया है " और क्रोध के मारे भक्त अम्बरीश को जलाने के लिए एक राक्षसी को उत्पन्न किया।
अट्टहास करती राक्षसी भक्त अम्बरीश की तरफ लपकी , लेकिन बिना डरे शांत -भाव में भक्त अम्बरीश वही अडिग खड़े रहे।
भक्त अम्बरीश को अपने सत्य पर यकीन देखकर कलयुग अब चिंतित हो रहा था ।


कान्ता राॅय
भोपाल








उड़ान का बीज / लघुकथा



लगातार बिना रूके कण-कण को चुनते हुए अपने छोटे-छोटे पैरों से चल कर वह खुद की क्षमता से बढ़कर काम करती थी। हौसले से लबरेज़ अपने साथियों के साथ मिलकर उसने एक विशाल पहाड़ को काटने का लक्ष्य साध रखा था ।
दल बनाकर लक्ष्य को संधान कर वे सभी पहाड़ को लगभग खोद ही चुके थे कि उसके बदन पर पंख निकलने लगे । अपने शरीर में परिवर्तन होते देख वह इस जैविक प्रक्रिया को नकार नहीं सकी। काम बाकी था और जिंदगी हाथ से फिसलती जा रही थी ।
समुदाय में शोक की लहर दौड़ गयी। उसकी साँसें फूलने लगी थी। कुछ चीटियाँ पानी,मकरंद आदि तरल पदार्थ उसकी ऊर्जा बढाने के लिए ले आई ।
लेकिन उसने अपनीे बड़ी- बड़ी आँखों से सबको देखते हुए मन में संकल्प की गाँठ बाँधे रखी। वह संतुष्ट थी क्योंकि अब उसका घर अंडों से अटा पड़ा था ।
छोट-छोटे परों को फड़फड़ाती हुई झुण्ड के नजदीक जाकर उसने एक नजर सबको देखा और फिर पहाड़ की तरफ देखते हुए चीटियों के दल को वहाँ रूकने से मना कर दिया। सबको किसी भी हाल में आगे बढ़ना और काम करना था।
चींटी ने आशा से अपने आगे बढ़ते हुए दल की ओर देखा और मौत के विरूद्ध जिंदगी से परिपूर्ण अगली पीढ़ी के लिये उड़ान का बीज बो कर अपनी आँखें बंद कर ली ।


कान्ता रॉय
भोपाल


                          

खुशी / लघुकथा

( मेरी पहली लघुकथा जो एक मॉल के चित्र को देखकर लिखी थी )

कुसुम खुशी -खुशी सीमित साधनों के साथ सुखी जीवन जी रही थी ।घर के पास वाली बाजार से हर जरूरत की वस्तु मिल जाया करती , लेकिन जाने कैसे आज बच्चे जिद पर अड़े हुए थे कि उन्हे माॅल जाना हैं और वहीं से कपड़े खरीदने हैं।
आखिर क्या करती , बेमन से ही सही , अपने बच्चों को लेकर पहुँच गई माॅल । इतना बडाss महल के समान ये दुकान ....! हिचकिचाहट से भर उठी , अब कैसे अंदर जाये ? बच्चे हाथ खींच अंदर कि तरफ तो ले आये ,पर सिर चकरा रहा था । अंदर हर तरफ दुकानों में रंग- बिरंगे कपड़े टंगे थे।
एक से बढ़ कर एक कपड़े , बच्चों नें शायद बहुत शोध कर लिया था ,इस माॅल के विषय पर ,इसलिए वे दोनों बेफिक्र हो सब कपड़ों को अपने पर आजमा रहे थे ।
मोनू ने अपने लिए सुंदर सा एक जींस लिया और एक टी-शर्ट ,खूब जँच रहा था । कुसुम एक टक निहारती हुई जैसे खो गई ,तभी पिंकी लाल फ्राक पहन सामने आई तो लगा जैसे कोई परी आसमान से उतरी हो ।
"चलो अच्छा ही हुआ जो इनके कहने पर आ गई " देर तक दुकानों में इधर -उधर करने के बाद वो बच्चों के साथ ही कपड़ों को लेकर बिल बनवाने के लिए लाईन मे लग गई । इंतज़ार में अकबकाई सी चारों ओर सबको देखती रही।
करीब आधे घंटे में बारी आई ।कम्प्यूटर से बिल निकाल कर कुसुम के हाथ मे दिया तो बिल पर नज़र पड़ते ही गश खाकर गिरते-गिरते बची ।
"अब क्या करूं , ये तो पूरे महीने भर की आमदनी के बराबर बिल है ! "
सुट पहने बिल बनाने वाला कर्मचारी पेमेंट में देरी करते देख कुसुम पर चिल्लाने लगा ।
जैसे -तैसे हिम्मत कर कुसुम ने कहा " मेरे पास तो इतने रूपये नही हैं "
सुनते ही कर्मचारी बौखला गया ।भीड़ की निगाहें अपनी ओर देखकर वो झेंप गयी। बहुत कहने -सुनने के बाद बिल कैंसिल हुआ । बच्चों के चेहरे उतरे हुए थे।
कुसुम पीला - सा चेहरा लेकर घर लौट आई ।
आज तक जिस मान -गुमान से वो जीती आई थी ,सब माॅल में जैसे गिरवी रख आई । पति का कमाया हुआ धन अचानक से कम लगने लगा था ।बच्चों के सामने गुनहगार सी , थोड़े से में ही खुश रहने वाली कुसुम की जिंदगी बदल चुकी थी ।

कान्ता रॉय
भोपाल


श्रीमती नीलम पुष्करणा जी के संग  सुख  से भरी मेरी एक आत्मीय पल का  संयोजन .