शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

चौड़ी छाती / लघुकथा



" हमारी इज्ज़त के साथ नहीं खेल सकती है इस तरह " पिता का गम्भीर स्वर अब तक कानों को पिघला रहा था ।
उसकी नजरें झुकी हुई थी । चारों ओर बस धुँध और दूर जाती हुई जिंदगी ।
ऐसा लग रहा था जैसे वह हवा - पानी और धरती से आज बेदखल हो रही थी ।
जिंदगी मानो साँप सीढ़ी का खेल हो गया । इस प्रेम ने कहीं का नहीं छोड़ा !
ना सीढ़ी चढ़ पायी , ना ही नीचे गिर पाई ।

बचपन से किताबों में सद्भाव पढ़ते आई थी लेकिन , प्यार परवान चढ़ते ही , सद्भाव को भयानक जीव -जन्तु चबा - पचा गये और अपशिष्ट रूप में जाति-बिरादरी सामने आ गये।
सद्भाव वाला अध्याय , किताबों के पन्नों में ही डर के मारे दुबक कर सिमट गया ।
तब ईश्वर याद आये ।
ओह ! आज तो ईश्वर भी लाचार लगे । वरदान देने की ताकत तो अब उनके पास भी नहीं बची थी ।
परिवार या प्यार , मुकाबला बड़ा नाजुक था , अंततः उसने खुद को हराकर संस्कार को जीताने की तरफ अपने कदम बढ़ा दिये ,
क्योंकि समाज की चौडी छाती का सिमट जाना अच्छी बात नही होगी।

कान्ता राॅय
भोपाल

                                  

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