शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

उड़ान का बीज / लघुकथा



लगातार बिना रूके कण-कण को चुनते हुए अपने छोटे-छोटे पैरों से चल कर वह खुद की क्षमता से बढ़कर काम करती थी। हौसले से लबरेज़ अपने साथियों के साथ मिलकर उसने एक विशाल पहाड़ को काटने का लक्ष्य साध रखा था ।
दल बनाकर लक्ष्य को संधान कर वे सभी पहाड़ को लगभग खोद ही चुके थे कि उसके बदन पर पंख निकलने लगे । अपने शरीर में परिवर्तन होते देख वह इस जैविक प्रक्रिया को नकार नहीं सकी। काम बाकी था और जिंदगी हाथ से फिसलती जा रही थी ।
समुदाय में शोक की लहर दौड़ गयी। उसकी साँसें फूलने लगी थी। कुछ चीटियाँ पानी,मकरंद आदि तरल पदार्थ उसकी ऊर्जा बढाने के लिए ले आई ।
लेकिन उसने अपनीे बड़ी- बड़ी आँखों से सबको देखते हुए मन में संकल्प की गाँठ बाँधे रखी। वह संतुष्ट थी क्योंकि अब उसका घर अंडों से अटा पड़ा था ।
छोट-छोटे परों को फड़फड़ाती हुई झुण्ड के नजदीक जाकर उसने एक नजर सबको देखा और फिर पहाड़ की तरफ देखते हुए चीटियों के दल को वहाँ रूकने से मना कर दिया। सबको किसी भी हाल में आगे बढ़ना और काम करना था।
चींटी ने आशा से अपने आगे बढ़ते हुए दल की ओर देखा और मौत के विरूद्ध जिंदगी से परिपूर्ण अगली पीढ़ी के लिये उड़ान का बीज बो कर अपनी आँखें बंद कर ली ।


कान्ता रॉय
भोपाल


                          

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