शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

वायलिन की धुन / लघुकथा



थियेटर में अब सन्नाटा था । सब चले गये थे लेकिन वे दोनों वहीं बैठे रहे अपनी - अपनी सीट पर ।
बरसों बाद वह अपने शहर ,अपने थियेटर , लौट कर आया था । नये कलाकारों में पुराने रिश्तों को टटोलता हुआ , जब उसकी नजर कोने के सीट पर बैठी जूलिया पर पड़ी तो लगा , आज सारी मुराद पूरे होने के दिन है । अतीत साक्षात् हो उठा ।
एक वक्त था कि शहर का बच्चा - बच्चा उन दोनों का नाम जानते थे । अल्बर्ट और जूलिया की मशहूर जोड़ी , जब बैले करने के लिए मंच पर उतरती तो , पूरे हाॅल के लोगों की साँसें रूक जाती थी । सालसा का वो स्टेप किसी दूसरे के साथ कहाँ फिर कर पाया था . आज एक बार फिर वह सामने थी ।
अल्बर्ट इस कोने में और वो उसके विपरीत दूसरी कोने में ।क्यों बैठी है वो अब तक यहाँ ? उसको अपनी तरफ देखते हुए चोर नज़रो से देखा था उसने . क्या उससे बात नहीं करना है या पहल करने से घबराती है ? इतने जुड़ाव में ऐसी दूरी ! उसने ही आगे बढ़ने का निर्णय लिया ।
" हैलो जूलिया , कैसी हो ? " हाॅल का सन्नाटा तोड़ते हुए उसने शुरूआत की ।
" इस साधारण से थियेटर में विश्व का मशहूर बैले मास्टर क्या कर रहा है ? " उसके अावाज में खरखराती सी एक तीक्ष्ण तंज उभरी थी । वह चौंक उठा , अल्बर्ट के कानों में तो अब तक उसकी मीठी आवाज़ की आदत बनी हुई थी ।
" कैसी हो तुम ? " उसने खुद को संभालते हुए पूछा ।
" मै .....! " कुछ कहते हुए जरा ठहर सी गयी जैसे ,
" मै अच्छी नहीं हूँ , अगर यह कहूँ तो तुम क्या करोगे मेरे लिये अल्बर्ट ? " उसकी आवाज में फिर से वही आखिरी बार वाली मीठी सी कंपन को लौटते हुए महसूस किया उसने ।
स्वीडन जाने से पहले मिल नहीं पाया था , बता नहीं पाया था कि वह लौटेगा एकदिन , वह इंतजार करे उसका ।
" तुम्हारे लिये आया हूँ मै ,सब कुछ करूँगा जो तुम कहोगी " अल्बर्ट उद्वेलित हो उठा ।
" पैसा कमाने के लिए तुम मुझे छोड़ गये अल्बर्ट , शायद अब बहुत कुछ पा लिया होगा तुमने । यहाँ तलाश बेमानी है । क्या ढूंढना और अब क्या पाना ! " उसके दोनों आँखों के कोरो पर आँसू चमक गये । चेहरे की झुर्रियाँ थरथरा उठी ।
" लेकिन मै वापस वही वायलिन की धुन सी पूरानी जिंदगी चाहता हूँ तुम्हारे साथ " अल्बर्ट के आँखों में यकायक सपनों की फौव्वारे फूट पड़े ।
" वायलिन की धुन सी..... ! वायलिन तो उसी दिन टूट गई अल्बर्ट कभी ना सुधड़ने के लिये " वह उदासी से मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गई ।


कान्ता रॉय
भोपाल

                         

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