शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

मौन / लघुकथा



वह एकटक देखे जा रही थी उसे । ठूँठ सा बना दिया गया था , या महज़ उसका दिखावा भर था ये ?
क्या उसे इजाज़त नहीं थी अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए ? कौन रोकेगा उसे ?

ऐसा तो नहीं , कि चुप रह कर वो संवेदनहीन कहलाने से बचने की कोशिश कर रहा था !
मिलन की गर्मी और प्रेम , अब बर्फ सा जड़ , पौरुषेय भाव में दम्भित पुरूष- प्रकृति सा खड़ा रहा देर तक ।
आह ! कायर पुरूष !

...... और वह अब धरती - सी , अपनी मिट्टी पर भरोसा रख , संवेदनाओं का संवहन करते हुए , टूटती हुई , संभल रही थी लौट कर आने वाले बसंत की आस में ।

अपनी क्षणिक आस्तित्व से अनजान बादलों के सहारे कुहरा , अभिमान में डूब कर हँसते - हँसते दोहरा हो रहा था ।
उसे भरोसा , संवेदनशीलता वगैरह मानवतावादी सोच , नादानियत लग रही थी ।
मंद –मंद मुस्कुराता हुआ सूर्य अभी कुछ देर और मौन रहना चाहता था । उसका मौन रहस्यमयी था ।

कान्ता रॉय
भोपाल

                           

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