गुरुवार, 12 नवंबर 2015

सिटी आॅफ जाॅय/लघुकथा


हाथ में धुंघरू बजाते हुए बाढ़ की पानी में भी रिक्शे पर सवारी को ढोता हुआ बैचेन सा दौडता चला जा था गंतव्य की ओर , लेकिन आने वाले दिनों के लिए पेट की चिंता व्याकुल किये जा रही थी ।
कल बाग बाजार की सवारी लेकर जाते हुए उनकी बातों से मालूम हुआ कि रिक्शेवालों की वजह से शहर नोंगरा ( गंदा ) हो रहा है । मेयर शहर से रिक्शा हटाने पर विचार कर रहे है ।
भूख की हाँडी को यहाँ की माटी ने भात देने से शायद अब इंकार कर दिया ।
" आह रे , सिटी आॅफ जाॅय ! जाॅय , की बोरो लोक के ई दिबी ? " ( जाॅय क्या बडे लोगों को ही दोगी ? )
" क्या हुआ दादा ? कहाँ खोये हुए हो रिक्शे को खींचते हुए ? "
" की बोलेगा रे साहिब , सुने हैं , कोलकाता अब रिक्शे वालों को प्रश्रय नहीं देगी ?"
" एटा की पागलामी रे बाबा ! क्या सब सोच रहे है ? ये रिक्शा और ट्राम तो संस्कृति है कोलकाता का , ये कभी नहीं जायेगा , बुझले की ! "

कान्ता राॅय
भोपाल

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