कुछ बातें सभी परिंदों के लिये कि ...लघुकथा कैसी हो ... उसका प्रभाव कैसा हो ।
लघुकथा नाम के अनुरूप ही लघु रूप में होना चाहिए ।
बिंबात्मक लघुकथाएं परिस्थितियों से हमारा साक्षात करवाती है और फिर चलते - चलते अचानक ऐसे खत्म हो जाती है ,जैसे अपनी पीड़ा व्यक्त करते करते कोई व्यक्ति अचानक खामोश हो जाये
और फिर आपको उसकी उस आधी -अधुरी व्यथा - कथा से ही उसका पूरा हाल - चाल खुद जानना पड़े और खुद ही तय करना पड़े कि उसके लिये क्या करना है , करना भी है या नहीं ?
कुछ करने की स्थिति बची भी है या नहीं ? कुछ करने की स्थिति बची भी है या अब कुछ नहीं हो सकता है । श्रेष्ठ रचना वहीं है जो खत्म होकर भी पाठक के मन में खत्म ना हो , बल्कि वहां से वह अपनी एक नई चिंतन यात्रा शुरू करें ।
लेखक का सृजन पाठक के मन में भी कुछ सृजित करें ।
लघुकथा का उद्देश्य परंपरागत , निरर्थक और खोखले जीवन मूल्यों पर प्रहार करके नवीन एवं सार्थक जीवन मूल्यों के लिए भूमि तैयार करना होता है ।
लघुकथा प्रायः समस्या की ओर संकेत देकर ही मौन हो जाती है और अप्रत्यक्ष रूप में समाधान के लिये प्रेरित करती है । उसमें स्थितियों का निदान लेखक द्वारा कम और पाठक द्वारा खोजा गया अधिक होता है ।
लघुकथा में न कथा कम , न भाषा का बोझ , न भावों की बहुत ऊँची उड़ान , बस उतनी ही जितनी कि लघुकथा को चाहिए । विशिष्टता दिखाई देना चाहिए इसमें ।
लघुकथा लीक से हटकर सभी परंपराओं तोड़ते हुए भी और कभी किसी लीक पर चलते हुए भी होनी चाहिए ।
लघुकथा से उपजी करूणा और कटाक्ष - प्रहार के मिक्स की सुक्ष्म फुहारों से पाठकों का मन कुछ इस तरह से भीगता है कि एक साथ हँसने और रोने का मन करता है ... इसी को कहते है दोहरी मार ।
लघुकथा का मकसद ही है समाजिक विडंबनाओं पर दोहरी मार करने का ।श्रेष्ठ लघुकथा का पैमाना यही है कि वह कागज पर खत्म होने के बाद पाठक के मस्तिष्क में शुरू हो और उसे सोचने के लिये विवश करे । धीरे - धीरे उसे बदले , उसके कलुष को धोये , इतने धीरे कि पाठक को पता भी ना चले और उसका मन दर्पण स्वच्छ हो जाये , एकदम निर्मल ।
कान्ता राय भोपाल
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