गुरुवार, 10 मार्च 2016

गरीबी की धुँध ( लघुकथा )


शाम को पति के हाथों में " चीज़ " देखकर एकदम से हैरान हो गई । कई महीनों , नहीं ,नहीं ....., शायद कई साल हो गये थे उनको पत्नी के लिए " चीज़ " लाये हुए ।
वह हुलस कर " चीज " वाली पैकेट की ओर लपकी ।

" वाह ! बिरयानी ? " खूशबू से तर था वो पैकेट ।
हाँ , अबकी बहुत साल हो गये थे बिरयानी खाये हुए ।
एक जमाना हुआ करता था । वह प्रत्येक रविवार बडे़ चाव से बिरयानी पकाया करती थी । काजू ,बादाम को घी में तलते हुए सदा तृप्त रहती थी ।
मसाले से तर बोटियों को ,पुदीने और प्याज़ के लच्छों के साथ बासमती की सफेद लम्बी चावल की तह जमा ......फिर दम लगाना । वो जाफरानी बिरयानी की महक में खो सी गई ।
गुजरा वक्त ......यह अब सपने जैसा लगता है ।
बडे उत्साह से राईस प्लेट ला , पैकेट खोली ....

" ये कैसी ,कहाँ की बेरंगत सी बिरयानी लेकर आये है आप ? ना मेवे ,ना ही बोटियाँ ढंग की ... ऊँह ! "

" क्या यह अच्छी नहीं है ? यहीं के ठेले वाले से , आज तुम्हारे लिए ....
क्या करू , जब से नौकरी छूटी है .... "

" जी , आखिर कब ये गरीबी साथ छोडेगी .... अब बर्दाश्त नहीं होता है "

"तुम अगर साथ दो तो हमारी गरीबी दूर हो सकती है । "

" मतलब ? "

" मतलब ... ,मै तो अब नाकाम हो चुका हूँ हर तरफ से , लेकिन तुम्हारी मदद से ...... "

" मेरी मदद ? क्या कर सकती हूँ भला ? घरों में बर्तन माँजने के अलावा ....."

" अरे नहीं , शहजादियों सा काम है , अच्छे गहने ,कपड़े , मेवों का भंडार लग जायेगा ..."

" क्या ?.....शहजादियों सा काम .... मै समझी नहीं ? "

" वे लोग २००० रूपये सिर्फ दो घंटे का देंगे , महीने में १५ दिन भी काम कर लोगी तो हमारी जिंदगी सँवर जायेगी । "

" कौन सा काम ....? कहाँ पर .....? "

" शहर से बाहर ,जरा दूर है , मै पहुँचा आऊँगा रोज तुम्हें "

" दूर ? पहेलियाँ ना बुझाओ ,बताओ , कहाँ ...? "

" होssटल स्काईलैंड ....."


कान्ता राॅय
भोपाल

बरसाती ठूंठ / लघुकथा



परिवार समेत वह नाव डूब चुकी थी । अचानक आये उफान से नदी विकराल रूप ले , जीवन दायिनी आज जिंदगियों को लील रही थी ।

वह हताश , अब इस नाव की बारी , दूसरा रास्ता ना देख , अपनी सीने पर हाथ रख , आखिरी बार अपने धड़कन में जिंदगी को महसूस किया और पल भर में आँख बंद कर स्वंय को परिणिति के हवाले कर दिया ।

नाक ,मुंह , पेट सबमें पानी के भरने से दम घुटने लगा । आँख बंद थी । जाने कितने देर , अचेत रहा ।
लहरों पर धकियाते , कब तक बहता रहा , होश नहीं ।
स्वंय को कई हाथों में महसूस कर रहा था ।

धीरे से आँख खुली तो , नदी के किनारे पर लोगों द्वारा घिरा हुआ पाया । चारों तरफ अनजान लोगों पर नजर घुमते हुए दूर जाकर ठहर गई ।
दो बच्चे उसके जैसे ही पानी से भरे लिजलिजाते बरसाती ठूंठ को पानी से सींच रहे थे ।
विनाश की स्मृतियाँ पंगुता की अभिव्यंजना- सी कराह उठी ।
उसके चेहरे पर जमी भावहीन आँखें अब पत्थर हो चिल्ला पडीं " काटो ,काटो ,सब पेड़ काटो । "


कान्ता राॅय
भोपाल

नीरजा ( लघुकथा )


रेस्‍टोरेंट के कोने की टेबल पर , नजर नीची किये वो अकेली खाना खा रही थी । बहुत भूख लगी थी । अपने आस - पास के परिवेश से बेगानी सी थी , कि अचानक एक आवाज आई ।

" क्या मै यहाँ बैठ सकता हूँ ? "

" हूँ " मुँह में कौर डालते हुए वह बेफिक्र थी ।

" आप कहाँ से है ? "

" कोलकाता से " उचटती सी नजर उस पर डाल , फिर से खाने में तल्लीन हो गई ।

" अरे , फिर तो हम-वतन हुए हम आप "

" मतलब ? "

" मतलब , मै भी कोलकाता से हूँ "

" अच्छा ! " उसकी आँखें चमक गई ।

" आपका नाम ? "

" नीरजा "

" और आपका ? "

" सुदीप बनर्जी "

" बहुत बढिया ! यहाँ कैसे ? "

" एम आर हूँ , इस शहर से उस शहर , घूमना ही मेरा काम है "

" और आप ? "

" मै भी आज ही एक अर्जेंट मीटिंग के लिए आई थी , वापस जाने के लिए शाम को ९ बजे ट्रेन है मेरी "

" तो अभी सिर्फ २ बजे है , क्या करेंगी इतने देर ? कहाँ रहेंगी ? "

" क्या करूँगी , हाँ , समस्या तो है , कोई बात नहीं ,स्टेशन पर प्रतिक्षागृह में , कुछ किताबें पढते हुए समय बिताऊँगी "

" रात में १० बजे मेरी भी फ्लाइट है । आप चाहे तो मेरे कमरे में आराम कर सकती है "

" आपको दिक्कत होगी मेरे रहने से "

" अरे ,कोई दिक्कत नहीं "

" फिर चलिए "

" चलिए "

" नहीं नहीं , आप नहीं , मै दूंगी मेरे खाने के पैसे "

" क्या फर्क पडता है नीरजा जी , हम वतन जो ठहरे ,हक बनता है "

" जी "

" कितनी दूर है आपका होटल यहाँ से ? "

" यहीं नजदीक ही है , बस पीछे वाली गली में "

" जी "

" तीसरी मंजिल पर है , आप चढ़ लेंगी ना ? "

" हाँ , चढ़ लूंगी , वैसे आदत तो नहीं है "

" आप यहाँ आराम कीजिये मै रिसेप्सन में जाकर बैठता हूँ ।"

" अरे नहीं , मेरी वजह से आप अपना कमरा छोड़ कर ....आप भी यहीं पर आराम कीजिये । "

" चलिए बातें ही करते है , अपने बारे में बताईये ,घर में कौन कौन है "

" माँ ,बाबा ,दादी ,पत्नी और बेटा है । "

" शादी हो गई है ? बढिया , क्या नाम है पत्नी का ? "

" नीरजा बनर्जी "

" क्या ! मेरा नाम ! "

" हाँ , आपका नाम ! "

" अच्छा है यह फिर तो "

" देखिए अब ८ बज रहे है आपको स्टेशन के लिए निकलना चाहिए ।"

" ओह ,हाँ , आठ बज गये ! बातों में कैसे वक्त बीत गया मालूम ही नहीं पड़ा "

" क्या मै एक पिक लूँ आपके साथ ? "

" हाँ , अवश्य "

" मेरे दिल में एक हसरत जागी है अभी "

" मेरे भी दिल में कुछ जागी है आपके लिए "

" क्या ? "

" पहले आप बताईये "

" नहीं पहले आप "

" ओके , ....... , जाने से पहले एक बार आपके गले लगना चाहता हूँ "

" ओह ! "

" आपकी बारी , अब आप अपने दिल की बताईये "

" बताऊँ ? "

" हाँ , मैं बेसब्र हो रहा हूँ "

" आपके मुँह से अपने लिए " माँ " सुनना चाहती हूँ "

" माँ ! "

" आओ , गले लग जाओ ! "
कान्ता राॅय
भोपाल

कीलों की शक्लें ( लघुकथा )


अंतहीन यात्रा के लिए उसने अपना मन बना लिया था । इस घर से बाहर जाकर धारणा बदलने की जरूरत थी उसे ।
बहू की कड़वी बातों ने आज उसके धैर्य की सीमा तोड़ दी थी । कमाऊ ससुर का लिहाज़ भी नहीं , बूढ़े शरीर का खून गरम हो खौल उठा फिर से । 
विदा होने के समय स्वंय को जब्त किया ।

पत्नी उसे छोड़ कर अकेले स्वर्ग सुख भोग रही थी और वह अब तक यहाँ इस मिट्टी की दुनिया में मिट्टी हो , इस गृहक्लेश को भोग रहा था ।

दरवाजे के समीप पहुँचते ही वह चौंक उठा । उस पर जड़े कीलों की शक्लें बदलने लगी । वह पीछे हट गया ।
कील में अधेड़ बेटे का चेहरा उग आया था ।मानों वह कह रहा हो , " आपके जाने से आपके कमाई के बिना अकेले बच्चों का गुजारा कैसे चलाऊँगा । "

" हुँ ह ! तुम्हारी गृहस्थी तुम जानो ! " वह फिर आगे बढ़ चला दरवाजे की ओर ।
जैसे ही दरवाजे के समीप पहुँचा कि अबकी कीलों में पोता ,पोतियों के असंख्य चेहरे उग आये । उनके आँखों के चारों ओर कंगाली के काले - काले घेरे नजर आ रहे थे । वह ग्लानि से भर गया । घर से बाहर जाने की समस्त धारणाएँ धीरे - धीरे पिधल कर मिट्टी में मिल रही थी ।


कान्ता राॅय
भोपाल

लघुकथा लेखन के विषय में एक चर्चा ( तकनीकी पक्ष )


आप सभी की कथा पढ़ते समय मैंने तीन चीज़ कथा में बहुलता से प्रयुक्त होते देखी है।
1 . मैंने सोचा / उसने सोचा / ---- यानि ये सोचने वाली बात हमारी कथा सार्थक कथा में भी त्रुटि रोपित कर देती है। हम यहां क्षण विशेष को कहने की विधा में अपनी कोशिश कर रहे है जहां हमें किसी परिस्थिति का चित्रण उनकी विसंगतियों के साथ करना है। मन की बात जब बाहर आती है तो ही कथा बनती है। इसलिए / सोचा या सोचना / के उपयोग से बचने की कोशिश कीजियेगा।

2 . लेखक का लघुकथा में प्रवेश वर्जित है , यानि किसी भी क्षण विशेष पर लेखक का अपना वक्तव्य कथा में शामिल ना हो। बात हमेशा पात्रों के माध्यम से ही रखनी है कथा में। ऐसी कोई पंक्ति को जब भी कथा में प्रयुक्त करें तो स्वयं ही चेक करें की ये कौन कह रहा है ?

3 . लघुकथा भूमिका विहीन विधा है। यहां परिस्थितियां घटनाक्रम के रोपित होने से ही इंगित हो जाना चाहिए।
ये छोटी बातें हैं , लेकिन इन बातों से लघुकथा के सौंदर्य पर बहुत फर्क पड़ जाता है।
आप सबकी तरफ से इन् बातों से सम्बंधित प्रश्नों का स्वागत है।

कान्ता रॉय 
भोपाल 

अनकहा अनुबंधन / लघुकथा


उसके होठों से संगीत की धारा बह रही थी । आँखों में झिलमिलाती , हीरे की कनि सी ,स्वप्नों के कणिकाएँ आज चमक में उन्मादित हो गई । जब से सुना था कि मोहन वापस आ रहे है विदेश से , वह जैसे मन्त्रमुग्ध सी हो चली थी । दिखती कहीं , पर होती कहीं और थी ।
जाने से पहले उनके हाथों पहनाई , सगाई वाली अंगूठी , दोनों के बीच एहसासों का अनकहा अनुबंधन था । इतने सालों में एक बार भी ना उतार पाई थी , मानों अंगूठी में नग नहीं , वह अपना दिल जड़ कर रख गये हों ।
वे बचपन के साथी , साथ ही पले -बढ़े थे । दोनों के पिता व्यवसाय में साँझेदारी निभाते हुए , इस बडे़ घर में भी साँझेदार थे । उन दोनों की दोस्ती भी , उसकी प्रीत की तरह अटूट थी ।

बाहर गाड़ी की हॉर्न बजी , और घर में हलचल बढ़ गई । शायद वे आ चुके है । सपनों की डोली ,चढने की आकुलता में ,वह दौड़ कर दरवाजे की ओर बढ़ी । सामने नजर पड़ी । दिल धक्क से रह गया । गुलाबी साड़ी में ,बच्चे को गोद को में लिये ,साथ में यह कौन है , कहीं शादी तो .......!
हताश ,स्तब्ध , अपने प्रारब्ध से घबराई , जले हुए पदार्थ की अवशेष सी वह राख हो , एकदम जमीन पर बिखर गई ।
सब मुंह ताकते ही रह गए। उसने दौड़ कर उसे बाँहो में थाम लिया । घरवाले भी जड़ हो चुके थे ।

" क्या हुआ आप सबको ? अरे ,ये प्रिया भाभी है , मेरे दोस्त की पत्नी । मेरे साथ ही भारत आई है । कल इनके घर पहुँचा आऊँगा "


कान्ता राॅय
भोपाल

भूख और पेट ( लघुकथा )


आज फिर सुबह - सुबह वह सलाम बजाने पहुँच गया उनके घर । साथ में ब्रेड - अंडे का पैकेट भी ले आया था । खाली हाथ कैसे आता भला ! वे अफसर जो ठहरे ! सुना था कि उनको भूख बहुत लगती है ।
लेकिन भूखा तो वह भी था । उसके पेट में भी दिनों दिन भूख की आग बढ़ रही थी ।
क्या करें ! नित नये पैंतरे बदलता ,जाने कब किस बात पर वे खुश हो जाये और उसका काम बन जायें !
सरकारी अफसरों का मिजाज़ और उनकी भूख , तो वह जानता था , पर मिटाने का तरीका अभी सीख रहा था ।
शुरू - शुरू में तो काजू की बरफी भी पहुँचाई , लेकिन उसका निर्वाह तंग जेब के कारण कायम नहीं रह पाया ।
बाद में तो फल और सूखे मेवों पर आया , भूख बढ़ती गई और टालमटोल चलती रही ।
कोशिश तो नहीं छोड़ सकता है । उसकी मजबूरी है । बिल्डिंग बनाने का ख़्वाब भी उसके पेट की भूख से जुड़ा हुआ था । कहीं वह भूख से बिलबिला कर मर ना जाये , कृशकाय , लम्बा सा लटकते चेहरे पर चिंता की लकीरों को समेटे हुए वह जैसे ही बाहर आया कि सेक्रेटरी ने टोक दिया ।

" क्या सुरेश जी , आप कब तक यूँ चक्कर लगाते रहेंगे , आपके वश में नहीं है यहाँ से काम करवाना । "

" क्यों ? काम तो ...! बस साहब , पास कर दे पेपर " वह मायूस था ।

" पेपर वर्क की बात कर रहा हूँ मै , समझते क्यों नहीं ,कि भूख सिर्फ अफसर को ही नहीं ,उनके नामुइंदो को भी लगती है "

" भूख ! आपको भी लगती है क्या ? बडी़ मेहरबानी होगी , कृपया अपनी भूख शांत कर मेरा काम देख लीजिये "

" काम तो हो जायेगा लेकिन इन ब्रेड अंडों से नहीं , कुछ गर्म-माँस, मदिरा की व्यवस्था कीजिये "

" मदिरा तो ठीक ,लेकिन यह गर्म-माँस क्या मतलब हुआ इसका "

" अपना काम करवाना है तो इन सबका मतलब समझना होगा " उसके कंधे पर हाथ रख आधे झड़ते से पीले दाँत निपोड़ वह खिखिया उठा ।
उसने अपने पैरों में पहने जूते की तरफ़ देखा । घिसी हुई सोल से तलुवा झाँक रहा था ।
" काम तो किसी भी हाल में करवाना हैै , जल्दी बताईये " भविष्य में जूते के अधिक उघड़ने से , वह सहसा डर गया । भूख और पेट दोनों का आकार अब सुरसा के मुँह जैसा बढ़ता जा रहा था ।

कान्ता राॅय
भोपाल

रिश्तों की धुलाई ( लघुकथा )


उसने आज अपने सभी नये पुराने रिश्तों को धोकर साफ़ करने के विचार से , काली संदूक से उन्हें बाहर निकाला ।
पानी में गलाकर ,साबुन से घिसकर , खूब धोया । कितने मैल, कितनी काई , छूटकर नाली में बही , लेकिन उनमें से मैल निकलना अभी तक जारी था ।
रिश्तों की काई धोते - धोते हठात् पानी खत्म होने का एहसास हुआ । जरा सा पानीे बचा था ।
लगे हाथ उसने दोस्ती को बिना साबुन ही खंगाल लिया ।
उसे यकीन था , रगड़ कर धोये हुए समस्त रिश्ते चमक गये होंगे ।
सुखाने के लिये तार पर फैलाते वक्त वह चकित हुआ । 

रिश्तों की कालिमा अभी भी पूर्ववत थी जबकि दोस्ती तार पर दप - दप चमक कर , मुस्कुरा रही थी ।


कान्ता राॅय
भोपाल

रिश्ते की जकड़ ( लघुकथा )


" वह इतना सज धज कर मटकती रहती है दिन भर अनुज के सामने , क्या तुम्हें डर नहीं लगता है जरा भी ? "

" नहीं " कहते हुए वह थाली में से आलू उठा , अपनी सधी हुई अंगुलियों में फँसा ,चाकू से छीलने लगी ।

" तुमने देखा , वो कितनी फैशनदार है ! बिलकुल आजकल की लडकी ! "

" हाँ , देखा , तो ? "

" तो क्या ! अनुज पर अंकुश रखो जरा , फिसल सकते है वो ,उसके रूप के जाल में ! "

" नहीं ,वो नहीं फिसलेंगे कभी ,तुम निश्चिंत रहो , हमारे रिश्ते की जकड़ बहुत गहरी है और मुझे मेरे साथी पर पूरा यकीन भी है । "

" ओह ! फिर वही विश्वास ! रहो जैसे रहना है , तुमसे आज कुछ चाहिए , इसलिए आई हूँ "

" क्या ? "

" तुम्हारे झुमके , जो तुम्हें अनुज ने पहली रात के मिलन की निशानी के तौर पर दिए थे "

" वो तो नहीं दे पाऊँगी , तुम हीरे के फूल पहन लो आज "

" नहीं , मुझे वही वाली चाहिए "

"लेकिन वो तो अब मेरे पास नहीं है "

" क्यों , कहाँ गए ? "

" किसी से कहना नहीं, अनुज ने उसे उपहार में दे दिए है "



कान्ता राॅय
भोपाल

दबा हुआ आवेश /लघुकथा


मन बेचैन हो रहा था । आज वह उदास थी । उदास ही नहीं , रोई सूजी आँखें और शिथिल देह लिये ,गुम थी अब तक !
वह पुलिसकर्मी घर के अंदर तक घुस आया था । उसके पति के बारे में अनाप - शनाप बक रहा था ,सुनकर अवाक थी ।

उसके गले में सोने की मोटी जंजीर , फाँस बनकर चुभ गई, जब उसने ,उस जंजीर को हाथ से छूकर देखने की मंशा जाहिर करते हुए ,उसके गले को भी सहलाने की .... ,
" इसके लिए भी किसी का गला काटा होगा तेरे नालायक पति ने " उसको अनमनाते देख , उसने व्यंग्य से कटाक्ष किया ।
पति से ऐश्वर्य संपन्न की जिंदगी पाने की उसकी अभिलाषा तले , निर्ममता का ऐसा विद्रुप चेहरा ! इसका तो सपने में भी अनुमान नहीं था । शायद वह स्वंय अपराधी थी ।

" तुम्हारा केस अनोखा नहीं है दुनिया में " जाते हुए अचानक वह रूक गया । वह सहम गई ।

" उस पर अपनी नजर ढीली कर सकता हूँ मै ,तुम अगर चाहो तो ! " उसने लुभियाती नजर से देखते हुए जैसे ही कहा वह सिहर उठी । आगे और कुछ सोचना - समझना नहीं चाहती थी ।
फुर्ती से रशोई की तरफ मुड़ी और हाथ में हँसिया लेकर , इस प्रस्तावित एहसान के लिए बदले में उसने भी एक एहसान करना चाहा लेकिन पुरूषबल के समक्ष स्त्रीत्व अभयदान नहीं पा सकी ।


कान्ता राॅय
भोपाल

मेरे सपने मेरी आकाँक्षायें ( लघुकथा )


" अगले हफ्ते आॅफिस से लम्बी छुट्टी लेकर बाहर जाने का प्लाॅन बना रही हूँ । इस बार मेरा प्रोजेक्ट वक्त पर पूरा हो गया है " स्मिता के चेहरे पर राहत थी ।

" फिर से , लेकिन अभी तो पिछले वीकेंड तुम लोग मैसूर होकर आये हो ? इस बार कुछ दिनों के लिए घर ही हो आओ ना ।मैं भी घर जा रही हूँ "

" घर ? "

" चौंक क्यों गयी ? अरी बाबा , हाँ ,तुम्हारा अपना घर "

"ओह नो , घर जाकर मूड खराब नहीं करनी है ।"

" अजीब लड़की हो ! .घर पर मूड खराब , वो कैसे ... ? "

" अरे , क्या बताऊँ यार , पापा की नौकरी नहीं ,घर -खर्च ..... ! बडी चिक्ललस है वहाँ । नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह अपने ऊपर नहीं लेना है "

" लेकिन तुम तो यहाँ एम. एन. सी. में इतना बडी पोस्ट पर , लाखों का पैकेज है तुम्हारा , तुम हो ना उनके लिए ..... उनकी तपस्या की वजह ही तुम यहां .......?"

" अब तुम भी मत शुरू हो जाना , उनकी तपस्या····व्हाट ? सभी माँ -बाप इतना करते हैं,कुछ भी ख़ास नहीं किया है ·····और मेरी लाईफ़ का क्या ? वीकेंड में आउटिंग , बाहर लंच ,डिनर और अपने को मेन्टेन रखने के बाद बचता कहाँ है कि·········?
मेरे भी अपने सपने है । उनकी आकाँक्षाओं के बोझ तले अपने सपनों का गला तो नहीं घोंट सकती हूँ ना ! "
स्मिता के अबाधित विचार सुन वह विचलित हो उठी।

"पापा मेरी कल की फ्लाइट है ,सुबह पहुंच रही हूँ। माँ को कहियेगा पीली दाल और चावल बनाकर रखे " फोन रखते ही वह जोर से रो पड़ी ।


कान्ता रॉय
भोपाल

गरीब -परमात्मा ( लघुकथा )


कलाई में बँधी घड़ी पर नजर पडते ही उसकी चाल तेज हो गई । स्कूल की छुट्टी हो गई होगी अब तक , पारूल राह देख रही होगी उसकी ।
अच्छी शिक्षा के लोभ में पारूल को काॅन्वेंट में पढाने की जिद उसकी ही थी लेकिन अब क्या ......!

ईला हमेशा से उसकी सच्ची दोस्त रही है । उसके मुंह से आज काॅन्वेंट में पढने वाले बच्चों के बिगडने की बात सुन वह पारुल के लिए चिंतित हो उठी ।
अंग्रेजी संस्कृति का हावी होना...... , उसका कहना भी तो सही है , हमारे बच्चों को रोज प्रार्थना में , प्रेयर के नाम पर जाने क्या , कौन सा पाठ पढाते होंगे ..... ? , कहीं किसी दिन क्राॅस ...... ओह !

बस अब आखिरी गली और स्कूल सामने ........ तेजी से डग भरने के कारण वह हाँफने लगीं ,लेकिन पारूल के भारतीय संस्कार ,घुंटाये गये अंग्रेजियत पर भारी पडने का डर ...वह एकदम से ठिठकी ,
" पारूलssss...! गेट के बाहर कैसे , और यह क्या कर रही है .......?" दूर से ही चिल्लाई ।
" बाबा को पानी पिलाने बाहर आई थी ......." माँ की क्रोध भरी नज़र , वह सहमते हुए रूआँसी हो उठी ।
" किसके कहने पर ...... ? " उसकी निगाहें अब तक उस वृद्ध के जुड़े हुए काँपती हाथों पर जाकर टिक गयी ।

" मैम ने कहा था कि गरीब लोगो में परमात्मा होते है , इसके फटे कपड़े .......यह भी गरीब है, मम्मी , मै तो परमात्मा को पानी पिलाने आई थी । "

कान्ता राॅय
भोपाल

साक्षात्कार ( लघुकथा )


भव्य आॅफिस। उसका पहला साक्षात्कार ...... , घबराहट लाजमी था । इसके बाद दो साक्षात्कार और । पिता नहीं रहे। घर की तंगहाली ,बडी़ होने का फ़र्ज़ ,नौकरी पाना उसकी जरूरत , आगे की पढाई को तिरोहित कर आज निकल आई थी ।

" पहले कभी कोई काम किया है ? "

"जी नहीं , यह मेरी पहली नौकरी होगी । " गरीबी ढीठ बना देती है उसने स्वंय में महसूस किया ।

" हम्म्म ! इस नौकरी को आप क्यों पाना चाहती है ?"

" कुछ करके दिखाना चाहती हूँ , यहाँ मेरे लिए पर्याप्त अवसर है ।" इंटरव्यू के प्रश्नों के उत्तर सीख कर आई थी।
"ओके "

" पद के अनुसार अापके सार्टिफिकेट तो ठीक है ,लेकिन मै आपके निजी बातें , नौकरी पाने की आर्थिक जरूरत के बारे में भी जानना चाहूंगा ,····मैं आपको जानना चाहता हूँ । " - कहते हुए उन्होंने अपनी कुर्सी जरा आगे सरका ली । एकटक उसे देखते हुए उनके चेहरे के भाव बदल रहे थे।
वह अकचकाई !
क्या देख रहे थे वे ? नौकरी का इससे कोई वास्ता ?

" अपने बारे में सब लिखा है मैंने ,देखिये ···· ? टेबल पर रखे हुए फोल्डर की तरफ इशारा किया उसने।

" हमारी आपकी जोड़ी बनने से ही अच्छा काम कर पाएंगे , मैं आपको जानना चाहता हूँ। "

" जोड़ी ·····मतलब ? वह स्वंय में सिकुड़ने लगी । उनका घूर कर देखना भद्दा और अजीब लगा। उसके गालों और गरदन पर नजरें टिकाये हुए था । उनकी नजरों की छुअन जैसे शरीर पर रेंग रही थी , गंदी कोशिश .... ! नजरें झूका ली उसने । नजर उठा उसे फिर से देखने की हिम्मत नहीं हुई । चुप बैठी रही । इस एहसास ने मन को घिना दिया ।

" आपके पिता क्या करते है ? " - उनके चेहरे पर पिचपिचाती हुई गिलगिली मुस्कान ..... !
वह चौंकी , क्या वह उसकी मनोदशा से खेल रहा है ...?

पूर्णतया मन से सावधान हो , उसकी कुंठित आशा को मुर्छित करने का प्रण मन में कर , जबड़े को भींच , मुट्ठी कसी , सोचा , आज यहाँ से यूँ ही नहीं जायेगी ।
झटके से उठ ,टेबल से अपना फोल्डर उठा बैग में रख , दस रूपये का नोट उसके ओर बढ़ा " ले , एक चाय अपनी बहन की तरफ से पी लेना "
उनके एहसासों को अपने चप्पल से रौंदती तिरछी मुस्कान के साथ त्तक्षण वहाँ से निकल , बाहर आ नोट पेड पर नजर कर , दृढ़ता से दुसरे साक्षात्कार पर जाने का पता चेक करने लगी ।


कान्ता रॉय
भोपाल

विवेकानंद ( लघुकथा )


हाँ , आज ही के दिन उसका भी जन्म हुआ था , सिद्धांतवादी माँ धन्य हुई। इसलिए नाम रख दिया विवेकानंद।

समय बीता । विवेकानंद बड़ा हुआ । साथ ही बड़ा हुआ माँ के आँखों का सपना । 
उसका तेजस्वी पुत्र एक दिन देश ,धर्म और जन कल्याण में अपने जीवन की आहुति देगा।

उच्च डिग्री हासिल करने , विवेकानंद कॉलेज के हॉस्टल में रहता था ।
मोहल्ले भर का चहेता , यहां भी खूब नाम कमाए ।

आज छात्रवास में जश्न का माहौल ,आखिर क्यों न हो , चहेते के जन्मदिन का अवसर जो था । माँ का सिद्धांत ,समर्पण ,सपना अब युवा विवेकानंद के हाथों , विहस्की के बोतल में साकार हो रहा था ।

कान्ता रॉय
भोपाल

टॉमी ( लघुकथा )


"वाह शरद जी, आप तो पहुँचे हुए तीरअंदाज़ निकले! मान गये उस्ताद!"

"मतलब? क्या उस्तादी की मैने? "

"अरे वही, अपनी कार्यकर्ता कुसुमा देवी जी वाली केस में जो तटस्थता दिखाई है आपने, ना सही का साथ दिया, ना ही गलत का! यानि आपके तो अब दोनों हाथ में लड्डू है।"

"यह सब फालतू के चर्चे है, छोडिए कोई दूसरी बात कीजिएI"

"फालतू का चर्चा कहाँ, आप तो छा गये है! सुना है कि, विरोधी पार्टी की वह कार्यकर्ता भी अब आपके गुण गा रही है।"

"अब चुप भी रहिये मियाँ, यह राजनीति का रंग है, टिके रहने के लिए वक्त के हिसाब से बदलते रहने की यहाँ जरूरत होती है।"

"लेकिन, इन सबमें आपकी अपनी कार्यकर्ता कुसुमा देवी का क्या? वह तो आप पर भरोसा करती है। आपकी इस तटस्थता से, क्या उन पर असर नहीं पडेगा? "

"अरे वो? ऊँह, कोई असर नहीं.... वहाँ देखिए, दरवाजे पर बँधा मेरा टॉमी, दूध-रोटी और जरा सी पुचकार ....,
बस यही खुराक अपनी कुसुमा देवी का भी हैI"


कान्ता रॉय
भोपाल

तलाश एक ख़ास खबर की ( लघुकथा )


" इस तरह की खामोशी से न्यूज़ रूम का तो बेड़ा गर्क हो जायेगा ।
कुछ अलग हट कर ब्रेकिंग न्यूज़ ढूंढने की कोशिश करो । कुछ ऐसा कि लोग चौंक उठे "

" आप कहें तो , सर , वो दिन दहाड़े ए. टी.म. लूट की खबर को प्रसारित करवा दूँ ? "

"वो भी भला कोई न्यूज़ है ! जाओ कुछ और ढूंढो "

" सर ,आतंकवाद पर काम शुरू करू , आई मीन ,जेहादी ? "

" नो ! "

" प्रधानमंत्री जी की विदेश दौरा को अगर कवर करे तो ?"

" ये अब रेग्युलर सा सामाचार लगता है , उसमें धमाकेदार वाली बात कहाँ ! "

" सही कह रहे है आप , घोटालों में मंत्रियों के उजागर होने की , आप कहें तो काम करते है इस पर ।"

" अरे यार , समझते क्यों नहीं , आजकल जनता आदी हो चुकी है इन घोटालों को सुन -सुनकर , कोई तेज झन्नाटेदार खबर तैयार करो । "

" सर , एक और निर्भया जैसी बलात्कार वाले केस को हाई लाइट करें ? "

" नहीं ,ये भी नहीं "

" पिता का बेटी वाला रेप कांड "

" नहीं , अब यह भी बेअसर है । ढूंढो कुछ हट के "

" सर , मानव तस्करी ? "

" नो ! "

" बच्चों के माँस को पकाकर खाने वाली घटना ? "

" नहीं , उसपर भी बहुत हो चुका है ,याद है ना निठारी काँड ! बाद में जनता ने उसे घास भी नहीं डाला था , उसमें अब ब्रेकिंग न्यूज़ वाली बात नहीं रह गई है "

" सर , एक न्यूज़ है अछूता ,अगर आप कहें तो , लेकिन क्या ये सही होगा ? "

"सही- गलत तुम नहीं , बल्कि मैं सोचूंगा , बताओ ,जल्दी से कौन सा विषय है अछूता सा ? "

" सर , माँ - बेटे के रिश्ते में किस्सा ढूंढे तो ? "

"तेरा दिमाग सच में बहुत चलता है चिरकुट । इस बार प्रमोशन पक्का है , समझे ! "


कान्ता रॉय
भोपाल

भिखमंगा कहीं का ! (लघुकथा )


किसानी करने वाला धनीराम , सूखे की मार खा , परेशान हो ,अपनी मैली -फटी धोती और कई जगह से सिलाई उघड़े कुर्ते में ही , दो जून रोटी के इंतजाम के लिए , आज अपने गाँव से लगे , शहर में आ गया । राजधानी होने के कारण धनाढ्य वर्गों की बहुलता थी , इसलिए यहां मजदूरी के जरिये , कुछ कमाई होने की उसे आस थी ।

दोपहर तक कोई काम न मिलने की परिस्थिति में , अपना हाथ खाली देख , आँखों में बूढ़ी माँ , भूख से बिलबिलाते बच्चे और पत्नी के चेहरे की मायूसी याद आने लगी कि वह तड़प उठा। आँखे गीली हो गयी।
उससे ना रहा गया और वहीं चौराहे पर ही , लोगों के सामने हाथ पसारने लगा ।
" बहुत मजबूर हूँ बाबू, सूखे ने किसानी में बहुत मार दी है अबकी ,कुछ मदद कीजिये ,आपको पुन्न मिलेगा । "

"भिखमंगा कहीं का ! "आते -जाते लोग उसको हिकारत से देखते , भीख के बदले सिर्फ "भिखमंगे " का तमगा देते और आगे बढ़ जाते।

तभी वहाँ पर एक मारुति रुकी। बैनर लेकर कुछ सूट -बूट धारी , गाड़ी से बाहर निकल कर , वहाँ फ़ैल गए। बैनर पर धनीराम के गाँव का नाम सहित सुखाग्रस्त किसानो की मदद के लिए फंड जमा करने का उद्देश्य लिखा हुआ था।
देख कर उसके चहरे पर चमक फ़ैल गयी।

" ये मेरा गाँव है , मैं यहाँ का किसान हूँ , मैं यहाँ का किसान हूँ " जैसे ही वह चिल्लाया कि तुरंत दो सूटधारी उसे घसीट कर , दूर ले जाकर पटक दिया ," साले ! हमारा काम बिगाड़ने आया है , चुप रह , नहीं तो अभी ठिकाने से लग जाएगा ! "

बैनर के सामने रखा बड़ा सा कनस्तर , थोड़ी ही देर में , फंड के फंडे से तृप्त होकर , दूर बैठे धनीराम के फटे हुए कुर्ते को मुंह चिढ़ा रहा था ।


कान्ता रॉय
भोपाल