गुरुवार, 10 मार्च 2016

गरीबी की धुँध ( लघुकथा )


शाम को पति के हाथों में " चीज़ " देखकर एकदम से हैरान हो गई । कई महीनों , नहीं ,नहीं ....., शायद कई साल हो गये थे उनको पत्नी के लिए " चीज़ " लाये हुए ।
वह हुलस कर " चीज " वाली पैकेट की ओर लपकी ।

" वाह ! बिरयानी ? " खूशबू से तर था वो पैकेट ।
हाँ , अबकी बहुत साल हो गये थे बिरयानी खाये हुए ।
एक जमाना हुआ करता था । वह प्रत्येक रविवार बडे़ चाव से बिरयानी पकाया करती थी । काजू ,बादाम को घी में तलते हुए सदा तृप्त रहती थी ।
मसाले से तर बोटियों को ,पुदीने और प्याज़ के लच्छों के साथ बासमती की सफेद लम्बी चावल की तह जमा ......फिर दम लगाना । वो जाफरानी बिरयानी की महक में खो सी गई ।
गुजरा वक्त ......यह अब सपने जैसा लगता है ।
बडे उत्साह से राईस प्लेट ला , पैकेट खोली ....

" ये कैसी ,कहाँ की बेरंगत सी बिरयानी लेकर आये है आप ? ना मेवे ,ना ही बोटियाँ ढंग की ... ऊँह ! "

" क्या यह अच्छी नहीं है ? यहीं के ठेले वाले से , आज तुम्हारे लिए ....
क्या करू , जब से नौकरी छूटी है .... "

" जी , आखिर कब ये गरीबी साथ छोडेगी .... अब बर्दाश्त नहीं होता है "

"तुम अगर साथ दो तो हमारी गरीबी दूर हो सकती है । "

" मतलब ? "

" मतलब ... ,मै तो अब नाकाम हो चुका हूँ हर तरफ से , लेकिन तुम्हारी मदद से ...... "

" मेरी मदद ? क्या कर सकती हूँ भला ? घरों में बर्तन माँजने के अलावा ....."

" अरे नहीं , शहजादियों सा काम है , अच्छे गहने ,कपड़े , मेवों का भंडार लग जायेगा ..."

" क्या ?.....शहजादियों सा काम .... मै समझी नहीं ? "

" वे लोग २००० रूपये सिर्फ दो घंटे का देंगे , महीने में १५ दिन भी काम कर लोगी तो हमारी जिंदगी सँवर जायेगी । "

" कौन सा काम ....? कहाँ पर .....? "

" शहर से बाहर ,जरा दूर है , मै पहुँचा आऊँगा रोज तुम्हें "

" दूर ? पहेलियाँ ना बुझाओ ,बताओ , कहाँ ...? "

" होssटल स्काईलैंड ....."


कान्ता राॅय
भोपाल

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