गुरुवार, 10 मार्च 2016

बरसाती ठूंठ / लघुकथा



परिवार समेत वह नाव डूब चुकी थी । अचानक आये उफान से नदी विकराल रूप ले , जीवन दायिनी आज जिंदगियों को लील रही थी ।

वह हताश , अब इस नाव की बारी , दूसरा रास्ता ना देख , अपनी सीने पर हाथ रख , आखिरी बार अपने धड़कन में जिंदगी को महसूस किया और पल भर में आँख बंद कर स्वंय को परिणिति के हवाले कर दिया ।

नाक ,मुंह , पेट सबमें पानी के भरने से दम घुटने लगा । आँख बंद थी । जाने कितने देर , अचेत रहा ।
लहरों पर धकियाते , कब तक बहता रहा , होश नहीं ।
स्वंय को कई हाथों में महसूस कर रहा था ।

धीरे से आँख खुली तो , नदी के किनारे पर लोगों द्वारा घिरा हुआ पाया । चारों तरफ अनजान लोगों पर नजर घुमते हुए दूर जाकर ठहर गई ।
दो बच्चे उसके जैसे ही पानी से भरे लिजलिजाते बरसाती ठूंठ को पानी से सींच रहे थे ।
विनाश की स्मृतियाँ पंगुता की अभिव्यंजना- सी कराह उठी ।
उसके चेहरे पर जमी भावहीन आँखें अब पत्थर हो चिल्ला पडीं " काटो ,काटो ,सब पेड़ काटो । "


कान्ता राॅय
भोपाल

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