गुरुवार, 10 मार्च 2016

रिश्तों की धुलाई ( लघुकथा )


उसने आज अपने सभी नये पुराने रिश्तों को धोकर साफ़ करने के विचार से , काली संदूक से उन्हें बाहर निकाला ।
पानी में गलाकर ,साबुन से घिसकर , खूब धोया । कितने मैल, कितनी काई , छूटकर नाली में बही , लेकिन उनमें से मैल निकलना अभी तक जारी था ।
रिश्तों की काई धोते - धोते हठात् पानी खत्म होने का एहसास हुआ । जरा सा पानीे बचा था ।
लगे हाथ उसने दोस्ती को बिना साबुन ही खंगाल लिया ।
उसे यकीन था , रगड़ कर धोये हुए समस्त रिश्ते चमक गये होंगे ।
सुखाने के लिये तार पर फैलाते वक्त वह चकित हुआ । 

रिश्तों की कालिमा अभी भी पूर्ववत थी जबकि दोस्ती तार पर दप - दप चमक कर , मुस्कुरा रही थी ।


कान्ता राॅय
भोपाल

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