गुरुवार, 10 मार्च 2016

भिखमंगा कहीं का ! (लघुकथा )


किसानी करने वाला धनीराम , सूखे की मार खा , परेशान हो ,अपनी मैली -फटी धोती और कई जगह से सिलाई उघड़े कुर्ते में ही , दो जून रोटी के इंतजाम के लिए , आज अपने गाँव से लगे , शहर में आ गया । राजधानी होने के कारण धनाढ्य वर्गों की बहुलता थी , इसलिए यहां मजदूरी के जरिये , कुछ कमाई होने की उसे आस थी ।

दोपहर तक कोई काम न मिलने की परिस्थिति में , अपना हाथ खाली देख , आँखों में बूढ़ी माँ , भूख से बिलबिलाते बच्चे और पत्नी के चेहरे की मायूसी याद आने लगी कि वह तड़प उठा। आँखे गीली हो गयी।
उससे ना रहा गया और वहीं चौराहे पर ही , लोगों के सामने हाथ पसारने लगा ।
" बहुत मजबूर हूँ बाबू, सूखे ने किसानी में बहुत मार दी है अबकी ,कुछ मदद कीजिये ,आपको पुन्न मिलेगा । "

"भिखमंगा कहीं का ! "आते -जाते लोग उसको हिकारत से देखते , भीख के बदले सिर्फ "भिखमंगे " का तमगा देते और आगे बढ़ जाते।

तभी वहाँ पर एक मारुति रुकी। बैनर लेकर कुछ सूट -बूट धारी , गाड़ी से बाहर निकल कर , वहाँ फ़ैल गए। बैनर पर धनीराम के गाँव का नाम सहित सुखाग्रस्त किसानो की मदद के लिए फंड जमा करने का उद्देश्य लिखा हुआ था।
देख कर उसके चहरे पर चमक फ़ैल गयी।

" ये मेरा गाँव है , मैं यहाँ का किसान हूँ , मैं यहाँ का किसान हूँ " जैसे ही वह चिल्लाया कि तुरंत दो सूटधारी उसे घसीट कर , दूर ले जाकर पटक दिया ," साले ! हमारा काम बिगाड़ने आया है , चुप रह , नहीं तो अभी ठिकाने से लग जाएगा ! "

बैनर के सामने रखा बड़ा सा कनस्तर , थोड़ी ही देर में , फंड के फंडे से तृप्त होकर , दूर बैठे धनीराम के फटे हुए कुर्ते को मुंह चिढ़ा रहा था ।


कान्ता रॉय
भोपाल

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