गुरुवार, 10 मार्च 2016

दबा हुआ आवेश /लघुकथा


मन बेचैन हो रहा था । आज वह उदास थी । उदास ही नहीं , रोई सूजी आँखें और शिथिल देह लिये ,गुम थी अब तक !
वह पुलिसकर्मी घर के अंदर तक घुस आया था । उसके पति के बारे में अनाप - शनाप बक रहा था ,सुनकर अवाक थी ।

उसके गले में सोने की मोटी जंजीर , फाँस बनकर चुभ गई, जब उसने ,उस जंजीर को हाथ से छूकर देखने की मंशा जाहिर करते हुए ,उसके गले को भी सहलाने की .... ,
" इसके लिए भी किसी का गला काटा होगा तेरे नालायक पति ने " उसको अनमनाते देख , उसने व्यंग्य से कटाक्ष किया ।
पति से ऐश्वर्य संपन्न की जिंदगी पाने की उसकी अभिलाषा तले , निर्ममता का ऐसा विद्रुप चेहरा ! इसका तो सपने में भी अनुमान नहीं था । शायद वह स्वंय अपराधी थी ।

" तुम्हारा केस अनोखा नहीं है दुनिया में " जाते हुए अचानक वह रूक गया । वह सहम गई ।

" उस पर अपनी नजर ढीली कर सकता हूँ मै ,तुम अगर चाहो तो ! " उसने लुभियाती नजर से देखते हुए जैसे ही कहा वह सिहर उठी । आगे और कुछ सोचना - समझना नहीं चाहती थी ।
फुर्ती से रशोई की तरफ मुड़ी और हाथ में हँसिया लेकर , इस प्रस्तावित एहसान के लिए बदले में उसने भी एक एहसान करना चाहा लेकिन पुरूषबल के समक्ष स्त्रीत्व अभयदान नहीं पा सकी ।


कान्ता राॅय
भोपाल

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