गुरुवार, 10 मार्च 2016

कीलों की शक्लें ( लघुकथा )


अंतहीन यात्रा के लिए उसने अपना मन बना लिया था । इस घर से बाहर जाकर धारणा बदलने की जरूरत थी उसे ।
बहू की कड़वी बातों ने आज उसके धैर्य की सीमा तोड़ दी थी । कमाऊ ससुर का लिहाज़ भी नहीं , बूढ़े शरीर का खून गरम हो खौल उठा फिर से । 
विदा होने के समय स्वंय को जब्त किया ।

पत्नी उसे छोड़ कर अकेले स्वर्ग सुख भोग रही थी और वह अब तक यहाँ इस मिट्टी की दुनिया में मिट्टी हो , इस गृहक्लेश को भोग रहा था ।

दरवाजे के समीप पहुँचते ही वह चौंक उठा । उस पर जड़े कीलों की शक्लें बदलने लगी । वह पीछे हट गया ।
कील में अधेड़ बेटे का चेहरा उग आया था ।मानों वह कह रहा हो , " आपके जाने से आपके कमाई के बिना अकेले बच्चों का गुजारा कैसे चलाऊँगा । "

" हुँ ह ! तुम्हारी गृहस्थी तुम जानो ! " वह फिर आगे बढ़ चला दरवाजे की ओर ।
जैसे ही दरवाजे के समीप पहुँचा कि अबकी कीलों में पोता ,पोतियों के असंख्य चेहरे उग आये । उनके आँखों के चारों ओर कंगाली के काले - काले घेरे नजर आ रहे थे । वह ग्लानि से भर गया । घर से बाहर जाने की समस्त धारणाएँ धीरे - धीरे पिधल कर मिट्टी में मिल रही थी ।


कान्ता राॅय
भोपाल

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