गुरुवार, 10 मार्च 2016

भूख और पेट ( लघुकथा )


आज फिर सुबह - सुबह वह सलाम बजाने पहुँच गया उनके घर । साथ में ब्रेड - अंडे का पैकेट भी ले आया था । खाली हाथ कैसे आता भला ! वे अफसर जो ठहरे ! सुना था कि उनको भूख बहुत लगती है ।
लेकिन भूखा तो वह भी था । उसके पेट में भी दिनों दिन भूख की आग बढ़ रही थी ।
क्या करें ! नित नये पैंतरे बदलता ,जाने कब किस बात पर वे खुश हो जाये और उसका काम बन जायें !
सरकारी अफसरों का मिजाज़ और उनकी भूख , तो वह जानता था , पर मिटाने का तरीका अभी सीख रहा था ।
शुरू - शुरू में तो काजू की बरफी भी पहुँचाई , लेकिन उसका निर्वाह तंग जेब के कारण कायम नहीं रह पाया ।
बाद में तो फल और सूखे मेवों पर आया , भूख बढ़ती गई और टालमटोल चलती रही ।
कोशिश तो नहीं छोड़ सकता है । उसकी मजबूरी है । बिल्डिंग बनाने का ख़्वाब भी उसके पेट की भूख से जुड़ा हुआ था । कहीं वह भूख से बिलबिला कर मर ना जाये , कृशकाय , लम्बा सा लटकते चेहरे पर चिंता की लकीरों को समेटे हुए वह जैसे ही बाहर आया कि सेक्रेटरी ने टोक दिया ।

" क्या सुरेश जी , आप कब तक यूँ चक्कर लगाते रहेंगे , आपके वश में नहीं है यहाँ से काम करवाना । "

" क्यों ? काम तो ...! बस साहब , पास कर दे पेपर " वह मायूस था ।

" पेपर वर्क की बात कर रहा हूँ मै , समझते क्यों नहीं ,कि भूख सिर्फ अफसर को ही नहीं ,उनके नामुइंदो को भी लगती है "

" भूख ! आपको भी लगती है क्या ? बडी़ मेहरबानी होगी , कृपया अपनी भूख शांत कर मेरा काम देख लीजिये "

" काम तो हो जायेगा लेकिन इन ब्रेड अंडों से नहीं , कुछ गर्म-माँस, मदिरा की व्यवस्था कीजिये "

" मदिरा तो ठीक ,लेकिन यह गर्म-माँस क्या मतलब हुआ इसका "

" अपना काम करवाना है तो इन सबका मतलब समझना होगा " उसके कंधे पर हाथ रख आधे झड़ते से पीले दाँत निपोड़ वह खिखिया उठा ।
उसने अपने पैरों में पहने जूते की तरफ़ देखा । घिसी हुई सोल से तलुवा झाँक रहा था ।
" काम तो किसी भी हाल में करवाना हैै , जल्दी बताईये " भविष्य में जूते के अधिक उघड़ने से , वह सहसा डर गया । भूख और पेट दोनों का आकार अब सुरसा के मुँह जैसा बढ़ता जा रहा था ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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