गुरुवार, 10 मार्च 2016

मेरे सपने मेरी आकाँक्षायें ( लघुकथा )


" अगले हफ्ते आॅफिस से लम्बी छुट्टी लेकर बाहर जाने का प्लाॅन बना रही हूँ । इस बार मेरा प्रोजेक्ट वक्त पर पूरा हो गया है " स्मिता के चेहरे पर राहत थी ।

" फिर से , लेकिन अभी तो पिछले वीकेंड तुम लोग मैसूर होकर आये हो ? इस बार कुछ दिनों के लिए घर ही हो आओ ना ।मैं भी घर जा रही हूँ "

" घर ? "

" चौंक क्यों गयी ? अरी बाबा , हाँ ,तुम्हारा अपना घर "

"ओह नो , घर जाकर मूड खराब नहीं करनी है ।"

" अजीब लड़की हो ! .घर पर मूड खराब , वो कैसे ... ? "

" अरे , क्या बताऊँ यार , पापा की नौकरी नहीं ,घर -खर्च ..... ! बडी चिक्ललस है वहाँ । नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह अपने ऊपर नहीं लेना है "

" लेकिन तुम तो यहाँ एम. एन. सी. में इतना बडी पोस्ट पर , लाखों का पैकेज है तुम्हारा , तुम हो ना उनके लिए ..... उनकी तपस्या की वजह ही तुम यहां .......?"

" अब तुम भी मत शुरू हो जाना , उनकी तपस्या····व्हाट ? सभी माँ -बाप इतना करते हैं,कुछ भी ख़ास नहीं किया है ·····और मेरी लाईफ़ का क्या ? वीकेंड में आउटिंग , बाहर लंच ,डिनर और अपने को मेन्टेन रखने के बाद बचता कहाँ है कि·········?
मेरे भी अपने सपने है । उनकी आकाँक्षाओं के बोझ तले अपने सपनों का गला तो नहीं घोंट सकती हूँ ना ! "
स्मिता के अबाधित विचार सुन वह विचलित हो उठी।

"पापा मेरी कल की फ्लाइट है ,सुबह पहुंच रही हूँ। माँ को कहियेगा पीली दाल और चावल बनाकर रखे " फोन रखते ही वह जोर से रो पड़ी ।


कान्ता रॉय
भोपाल

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