८. व्यथित संगम ( लघुकथा )
व्यथित मन लिए वो अकेली बैठी थी घाट पर जाने कब से ।
समंदर का जोर - जोर से हिलोरे मारना और घाट की सीढ़ियों पर जोर से आकर अपना सर पटक जाना .... ऐसा प्रतीत हुआ मानो वो भी व्यथित है मन के गहन तले तक ।
गोमती का संगम समंदर में यहाँ ....हाँ , संगम सुखदायी होता है ... यही देखा और सुना है अब तक ।
फिर यह अंतर्द्वंद्व कैसा मिलन के क्षण में ..??
आज घाट पर सन्नाटा था । अजब संयोग यह भी ..!!!
सिर्फ इस संयासी के और उसके अलावा कोई नही दूर तक ।
वो भी अकेली हो चली थी आज सबके होते हुए ।
जीवन भर का स्नेहिल स्वप्न ...अपनों के तिक्त स्वर ने तोड़ दिया था पल भर में ।
बिलकुल इसी घाट के समान ... सुबह इतनी भीड़ की पैर रखने को जगह नही .... और दोपहर तक सन्नाटा ..!!!!
इसे तो फिर कल सुबह रौनकों के आने का ऐतबार है पर क्या उसके नसीब में ..??
द्वारकापूरी का यह घाट उसके दर्द का सांझा साथी था । पहली बार जब पति के साथ मन्नत माँगने आई थी द्वारकाधीश की देहली पर ..तब भी बाँझपन का दर्द लिए थी ।
आज बरसों बाद उम्र के आखिरी पडाव में परिवार को त्याग बिछुडन के अंतरज्वाला में वो क्या अभी भी कही जिंदा है ..?
इस घाट पर संगम किनारे बैठी समंदर में अपनी हृदय के चित्कार को समंदर के लहरों के साथ ताल मिला रही थी कि पीछे से आवाज आई --
" माँ ... मेरा मन कहता था कि तुम यहीं मिलोगी ।
कान्ता राॅय
भोपाल
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