बुधवार, 27 मई 2015

मै धरा अक्रांत ( कविता )

मै धरा अक्रांत ( कविता )
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शक्ति - प्रकृति बन जाऊँ
ना रहू अब पद - तल में
ना करूं  विनम्र विश्राम
हो सुरभित अनंत में

सह कर मन की पीड़ा
हो उठी मै धरा अक्रांत
आज तिरोहित हो कुंज भी
मन माँगे अबके विश्रांत

देव बने आप अपने में
क्यों मुझसे की अपेक्षाएँ
माफ करो स्वंय भार सहो
ना दो मुझे और आपदाएँ

रूदन आहत मै धरा
मन जंगल  हृदय जले
तुम बने उन्मुक्त विलासी
धरा जीवन स्वप्न भूले

अपेक्षा की उपेक्षा किये
अपने मद तुम चूर रहे
हो उन्मुक्त और विलासी
धरा ही जीवन भूल गये

कान्ता राॅय
भोपाल

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