पिघलती हुई रेगिस्तान ( लघुकथा )
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दिल की जलन से अधिक ताप तो स्वंय आग में भी नहीं ।
वो बगावत कर चुकी थी अपने ही कबीलों के साथ । बाहरी समुदाय के छोरे को मीत जो बना बैठी थी ।
गर्म हवा के थपेड़ों नें जीने की अभिलाषा छीन ली । अब जिंदगी की हार निश्चित है ...सोच कर बैठ गई गर्म रेत के टीले पर .... अब और ना भाग सकेगी वो ।
कबीलों के समूह का शोर अब नजदीक हो चला था । उनके हाथों में सजे भाले भी उसकी खून के प्यासे है ।
आँख मुँद ली और चेहरे को रेत में छुपा कर घुटने के बल बैठ गई ।
सहसा दो हाथों ने उसे सहारा दिया । वो हाथ ममता और स्नेह के थे । रेगिस्तान अब पिघल रहा था ।
पिता ने भी अब बगावत कर दी थी कबीलों के खिलाफ़ बेटी की शादी करके ।
कान्ता राॅय
भोपाल
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