शनिवार, 14 मार्च 2015

धर्मांतरण क्यों ?(लघुकथा )


" मै नहीं करूँगी अपना धर्म परिवर्तन । तुमने तो कहा था कि मै जैसी हूँ तुम्हें अच्छी लगती हूँ । "

" लेकिन बिना धर्म परिवर्तन के हमारी शादी असंभव है । "

" यह मेरे नीति के खिलाफ है । मै धर्म परिवर्तन नहीं करूँगी चाहे कुछ भी हो । " --साजिया अडिग थी अपने बातों पर ।

दिवाकर  को स्तब्ध देख कर साजिया  जैसे ही वहाँ से जाने को हुई तो अचानक दिवाकर  मुस्कुरा उठा और साजिया  का हाथ अपने हाथ में लेकर  हल्के  से दबाते हुए  कहा --" चलो हम कोर्ट मैरिज करते है । "

कान्ता राॅय
भोपाल

फर्श का अर्श (लघुकथा )


" माँ , देखना एक दिन मै बहुत पैसा कमाऊँगा और बहुत बडा आदमी बनूँगा । " --- माँ को घरों में बर्तन माँजते हुए देख  विजेन्द्र का दिल रो पडता था ।

पैसे की तंगी से पढ़ाई बमुश्किल ही कर  पाया था ।  सरकारी दफ्तर में जब नौकरी लगी तो सिर्फ पैसा कमाना ही उद्देश्य समझा उसने ।
कुछ ही साल में विजेन्द्रपाल सिंह शहर के रईसों में गिना जाने लगा ।

" ओह ! ऐसा कैसे हो गया । "-- चुनाव परिणाम विपरीत साबित हुआ और उम्मीदें धरासायी हुई ।
चंद महीनों बाद ही अचानक विजेन्द्रपाल सिंह के दफ्तर , कारखाने और घर पर छापा पड़ रहा था ।
फर्श का अर्श फिर फर्श पर ही आ गिरा था ।

कान्ता राॅय
भोपाल

दोहरा चरित्र (लघुकथा )

मै सोई हूँ तो यह कौन मेरे अंदर का जाग रहा है ?  क्यों इसकी शक्ल मुझसे मिलती है ?

"तुम क्या कर रही हो यहाँ ?
तुम्हारा क्या काम है मुझसे ? "

यह  जबाव क्यों नहीं देती है   ?  मुझे देख कर सिर्फ मुस्कुरा रही  है ।
उफ्फ !! क्या यह  मेरी खिल्ली   उडा रही है  ।   इसे देख कर क्यों मुझे कोफ्त सी हो रही है ।

" क्या तुम मुझे डराने आई हो ?   मै क्यों डरूँ तुमसे यह बताओ जरा  ? "

" मै अंतरआत्मा हूँ तुम्हारी  इसलिए तुम्हारे मन का सब बातों को जानती हूँ ।  कुछ भी छिपा नहीं मुझसे । इसलिए तुम्हारी दोहरे चरित्र पर मुझे हँसी आ रही है । "

कान्ता राॅय
भोपाल

बहना की डोली (लघुकथा )


सीमा पार फिर से युद्ध विराम तोड़ दिया गया था  ।
भैया  ने मिग -२१ की उड़ान से  पहले  फोन पर वादा किया था कि तेरी  डोली को कंधा  देने तेरा भैया जरूर आयेगा ।
बिट्टो  डोली में चढनें से पहले दौड़ कर शेरावाली को मिन्नतें करने लगी ।

" हे मातारानी , तुझे  हाथ जोड़ विनती करती  हूँ । मेरे भैया को सदा सलामत रखना । "-- शादी के जोड़े में बिट्टो भैया की राह तकते हुए  मातारानी से दुआएं कर रही थी कि अचानक ढोल और शहनाई की आवाज बंद हो गई । बिट्टो दौड़ कर दरवाजे की ओर भागी और स्तब्ध रह गई ।

भैया तिरंगे में लिपटे हुए चार कंधो पर सवार हो बिट्टो की डोली को कंधा देने आ गये थे ।

कान्ता राॅय
भोपाल

सुई या ... ?



मै सदा सिलती रहती हूँ फटे पुराने चिथड़ों को तुम्हारे । कितनी बार तुम्हारे उधड़ती हुई कपड़ों को जोडती रही हूँ रिश्तों को बुनती रही हूँ ।

मै जब तुम्हारे  काम की नहीं होती ,  घर के किसी पुराने कागजों की तह में खोंस दी जाती हूँ ।

मुझे सदा सलीके से रखो , नही तो मेरी पैनी नोंक में चुभ जाओगे तुम ।

मै सुई सरीखी पत्नी ही हूँ तुम्हारी ।
मेरी जरूरत तुम्हें हर पल रिश्ते  बुनने के लिए पडेगी ।
मेरे ना होने से कल  कैसे तिलमिला उठे थे तुम ।

  जब मुझे अनदेखा करते रहते हो तब क्यों नहीं याद रहती है तुम्हें मेरी जरूरत  । क्या मै तुम्हारे लिए सुई से बढ़कर नहीं ?

कान्ता राॅय
भोपाल

चौराहे की जिंदगी ( लघुकथा )

सिग्नल की लाल बत्ती जलते ही राधा पहुँच गई अपने ग्राहक की ओर । आँखों की आँखों से बात हुई और अगले ही पल वो गाड़ी में सवार थी  ।

जब से दिहाड़ी करने वाला पति नाले में मृत पाया गया था , राधा की किस्मत में चौराहे की जिंदगी नसीब हुई । दो जिंदगी को रोटी के लिए मोहताज देख माँ के पास दुसरा आसरा जो  नहीं था ।
" दीदी , भूख लगीं है । "

" माँ को आने दे लालू , वो खाना लेकर आयेगी । "

असहाय बच्चे रह रह कर उस रास्ते को निहारते जिस रास्ते पर वो गाड़ी वाला माँ को  लेकर गया  था  ।

दिन बीतने ही वाला था कि अचानक दूर वही  गाड़ी आती दिखाई दे गई । दोनों भाई बहन के चेहरे पर खुशियाँ ऐसे लौटी मानो जिंदगी मिल गई ।

" ये क्या ! "- दोनों अबोध सकते में थे ।

गाड़ी का दरवाजा खुला । निष्प्राण माँ को सड़क पर फेंका और गाड़ी तेजी से आगे बढ़ गई ।
देश की एक और विडंबना सामने थी ।
देश का भविष्य बैठा रो रहा था और वर्तमान औंधा पडा़ था ।

कान्ता राॅय
भोपाल

विधवा विवाह (लघुकथा )

" बहु का पुनः विवाह कराना है । पंचायत से आज्ञा चाहता हूँ । "

" हमारे समाज में यह आज तक नहीं हुआ है । "

" पंचायत से निवेदन है कि मुझे सहमति प्रदान करे । "

" सहमति असंभव है । "

"लेकिन मै फैसला कर चुका हूँ ।"

" फिर तुम्हें समाज और गाँव से निकाला का फैसला सुनाती है यह पंचायत । "

कान्ता राॅय
भोपाल

रिपोर्ट (लघुकथा )

"साहब , कितनी देर से बैठा हूँ थाने में अब तो रिपोर्ट दर्ज कर दीजिये । "

" मामला क्या है ? "-- उचटती नजर से थानेदार ने पूछा तो लगा कि अब शायद काम हो जाये ।

" साहब , बेटी को घर से कुछ गुंडे उठा कर ले गये । "-- रामलोचन लगभग रो पडा था ।

"अरे ,  फिर से लौंडा लौंडिया का केस ? " -- रामलोचन के आँसुओं से बेपरवाह थानेदार खीज उठा था ।

"जाओ थोड़ी देर बाहर बैठो । दुसरा  तुम्हारा केस देखेगा । अभी मै मंत्री जी के महत्वपूर्ण केस में उलझा हूँ । "--

रामलोचन को रह रह कर बेटी का बेबस चेहरा उतावला कर रहा था ।

" पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखवाने के लिए भी जिगर और ओहदा चाहिए भाई  । यह जगह मजबूरो के लिए नहीं शायद  ..!!  "--- समीप में बैठा एक और लाचार रामलोचन को देख मुस्कुरा रहा था ।

कान्ता राॅय
भोपाल

मनरेगा (लघुकथा )

" साल में नब्बे दिन परिवार के एक सदस्य को काम देकर सरकार समझती है कि मजदूरों का पेट भर दिया !  क्या साल के  नब्बे दिन ही मजदूरों  का पेट भरना चाहिए  ? " --  प्रेसवार्ता में  मंत्री जी   से   एक नवोदित प्रेस रिपोर्टर ने  यह सवाल   पूछा  तो मंत्री जी सवाल का जबाव ना देकर  कर रिपोर्टर के घर का अता पता पूछने लगे ।

हालात के गंभीरता को भाँपते हुए   अचानक बाकी रिपोर्टरों में अफरा तफरी मच गई प्रेसवार्ता को खत्म करने के लिए  ।

अति उत्साहित नवोदित प्रेस रिपोर्टर " तीन महीना काम नौ महीना आराम "  के प्रश्नों के जाल में भ्रमित होकर रह गई ।

कान्ता राॅय
भोपाल

कही -अनकही ( लघुकथा )


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"मम्मा मेरी " - कहते हुए आरूष गले से लग गया नेहा के ।

" क्या बात है मेरा बेटा आज बडा खुश है ! कहीं प्यार तो नहीं हो गया तुझे ? "-- कान खींचते हुए जब नेहा ने आरूष की ओर गहरी नजर से देखा तो वह शरमा  कर झेंप गया ।

"मम्मा  तुम भी ना ! क्या मै तुमसे वैसे ही गले नहीं लगता कभी ?" -- आरूष की चोर नजरों को  मम्मा पकड़ चुकी थी ।

" चल बता भी दें उसका नाम !  ज्यादा नखरे मत दिखाओ !  कहीं वो तेरी आॅफिस वाली मानसी आहूजा तो नहीं ? "-- नेहा मुस्कराहट के साथ पूछ रही थी ।

आरूष सोच रहा  था मम्मा को देखते हुए कि मम्मा कैसे  जान लेती है मेरी सारी कही अनकही बातें  ।

कान्ता राॅय
भोपाल

फितरत (लघुकथा )

पार्क में  रोज  शाम को  इसी कोने में बैठना प्रकाश को बहुत भाता था । जाने क्या लगाव था उनका पार्क के इस हिस्से से । प्रतिदिन दो घंटे सुबह और दो घंटे शाम को यहाँ आ बैठते थे । 

शादी से पहले मालती से भी रोज यहीं मिला करते थे । जिंदगी भर स्कूल की नौकरी करते हुए भी एक दिन यहाँ आना ना छूटा  था । मालती तो आधी राह की मुसाफिर निकली ,  साथ छोड़ ईश्वर से यारी कर ली थी । लेकिन प्रकाश यादों के सहारे यहीं  जडवत  रह गये ।

कई महीनों से एक बिल को देखते हुए  जैसे ममता जाग जाती थी ।
माली कई बार  लोगों के साथ आकर   समझा जाता था कि   --" साहब यहाँ मत  बैठा किजिए । इस बिल में साँप का निवास है ।  इसे निकाल कर मार देंगे । क्या पता  ,  यहाँ रहेगा तो कहीं किसी दिन किसी को डस ही लेगा  ।
साहब , डँसना फितरत है इसकी । "

"तुम सब अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित हो इसको मारने आये हो !  जब कोई इसे  नही छेडेगा तो यह भी किसी को कुछ नहीं कहेगा । जाओ इसे भी जीने दो यहाँ  । "- प्रकाश ने उनको वापस जाने पर विवश कर दिया ।

कई बार लोगों के  कहने के उपरांत भी प्रकाश ने उस बिल पर  किसी को हाथ नही लगाने दिया और उस बिल पर ऐसे नजर रखते मानो संरक्षक हो उस बिल के ।

आज शाम को उसी पार्क के कोनें में प्रकाश अपने द्वारा संरक्षित  साँप के काटने पर मृत पाये गये । साँप ने अपनी फितरत दिखा दिया था ।

कान्ता राॅय
भोपाल

भारतीय रेल (लघुकथा )

रेल की रेलम पेल में गर्मियों की छुट्टी में घुमने का प्रोग्राम बना तो लिया लेकिन प्लेटफार्म पर पहुँच कर गाड़ी सामने होते हुए भी भीड़ ने हमें उसकी पहुँच से बहुत दूर कर दिया ।

हम मुंह ताकते ही रह गये और ट्रेन आगे बढ़ गई ।
तब  यह एहसास हुआ कि सचमुच में भारत की जनसंख्या क्षमता से अधिक हो गई है ।

कहीं ऐसा भी हो भविष्य में  कि देश में भी ऐसी ही रेलम पेल हो जाये और हम सरक कर समंदर में पहुँच जाये ।

कान्ता राॅय
भोपाल

होली के रंग (लघुकथा )

आज पति का मन कृष्ण से गौरांग हो गया था । वो द्रोपदी का सखा स्वरूप हो गया था ।

हाथ लेकर हाथों में अपने  सखा से कहा  , " सब गाँठ खोल दो । मन के सारे राज बोल दो । " पत्नी चकित थी और बहुत खुश थी । आज उसे अपने पर गुमान हो आया था । दोस्त को जो राजदार बनाया था ।

हठात् पति फिर से कृष्ण मन का हो गया । कृष्ण रंग पोत कर पत्नी के मुँह पर सखा से पति हो गया ।
कालिख  पत्नी के चेहरे का होली के रंग में छुप गया ।

कान्ता राॅय
भोपाल

होलिका की परिक्रमा (लघुकथा )


आज दिल के कई तह में छुपी हुई रिश्ते  को फिर से  देखा । बहुत ही बदरंगा सा लगा ।
रिश्तों पर जमी फफूंद को वह चंद खुशनुमा यादों की कोलिन से साफ करने जो बैठी तो बीते दिनों की यादों में खो सी गई ।
उस दिन होलिका पूजन के लिए बस तैयार ही हो रही थी कि पीछे से क्या सुझी उसे कि वह रंग लगा बैठा मुझे ।
" होली तो कल है फिर आज यह रंग क्युं ?  क्योंकि मै तुमको तुम्हारे  उनसे पहले  रंगना चाहता था । " --- वह कह रहा था और मेरे  " वो " पीछे खडे़ सब सुन रहे  थे ।
फिर वहीं हुआ जो आम तौर पर सारे पति करते है । ना मै उनकी हुई ना ही उसकी ।
कई साल बीते होलिका दहन की यह रात मेरे खुशियों की दहन की रात बन गई ।
उन्होंने ट्रांसफर करवा लिया अपना और मै यहीं रह गई अपनी स्कूल की नौकरी के साथ अकेले ।
" कौन है !! " अचानक दो हाथों ने पीछे से रंग दिया था मुझे । मुड़ कर देखा तो फफूंद पडा़ रिश्ता अपनी पूरी चमक के साथ मुस्कुरा रहा था ।
कान्ता राॅय
भोपाल

डिस्टेंस रिलेशनशिप (लघुकथा )



चंद अक्षर जो ममता और अनुराग से भरे  होते  थे  अचानक से उन अक्षरों में तल्खी नजर आने लगी थी ।

शायद यह नजरों का धोखा ही हो लेकिन एक अनकहा डिस्टेन्स रिलेशनशिप  तो उनके बीच बन ही चुका था  । अनजाने  होकर भी कोई तो कहलाने लगे   थे वो ।

लाॅग आॅफ करके सोने तो गई बिस्तर पर लेकिन आँखों में नींद की जगह आँसुओं के  सैलाब ने ले लिया था ।

पूरी रात आँखों में काटने के बाद सुबह जैसे ही आॅनलाईन आई कि एक मैसेज देख कर  दिल में खुशी की लहर दौड़ गई ।
रिश्ते तो रिश्ते ही होते है चाहे वो क्लोज़ रिलेशनशिप  हो या   डिस्टेन्स रिलेशनशिप  ।

कान्ता राॅय
भोपाल

मोह माया (लघुकथा )


बेटों की पूरी कमाई का हिसाब पहली तारीख़ को रमा  आँगन की चारपाई पर बैठ कर बडी अकड़  के साथ लेती थी ।
अपनी सिरहाने तले रखी पेटी में जोड़ रखी  थी  जीवन की सारी बचत पूँजी ।
बहुऐं कभी नजर उठा कर भी सास को नहीं देखती थी ।

"जिंदगी भर इस बुढिया ने कभी पेट भर खाने नहीं दिया । अच्छा पहनने  नहीं दिया । पूरे घर पर कुंडली मार कर बैठी रही है आजतक   । आज चलो  तोड़ते है बुढिया की पेटी ।  "-- जिंदगी भर की जोडी हुई माया आज बहुओं के हाथ आ गई थी ।

घर के बाहर चारपाई पर रमा  लकवाग्रस्त  असहाय   अपनी माया के लुट जाने के गम में  से मन ही मन अपनी माया से मोह तोड़ रही थी ।

कान्ता राॅय
भोपाल

ये इश्क की अजीब दास्तान है (नज्म )



उसका दिवानों जैसा हाल था
रात दिन ना जरा ख्याल था

पीछे पडा रहता था माशूका के
दुनिया का ना कोई परवाह था

एक दिन इकरार हो गया
बेइंतहा प्यार हो गया

आखिर इश्क की जीत हुई थीं
दोनों की प्रीत में प्रीत हुई थीं

प्यार के आगोश में डूबे दो दिल
दो जिस्म एक जान बने

खोकर सारे होशो हवास
बेसुध औ बेजान बनें

अचानक यह क्या हुआ
दिवाना होशमंद हो गया

लौटना आसान हुआ उसका
वो मुहब्बत में  फिक्रमंद हो  गया

दिवानी सुध बुध खोकर
अाज भी वहीं पडीं हुई

दिवानी  दुनिया से अनजान  है
ये इश्क की अजीब  दास्तान है

ये इश्क की अजीब  दास्तान है

कान्ता राॅय
भोपाल

दूर जाने की ख्वाहिश (नज्म )

क्यों तुम मुझे तुम जैसे नहीं लगते हो

अजनबी हो तो अजनबी ही रहो अब

दूर जाने की ख्वाहिश रंग लेकर आई

पास आने की  कवायद न करो अब

खुश रहना तेरा बडी़ मुराद है  मेरी

रंजो गम से जरा दूर ही रहा करो अब

मैने बना रखा था हबीब अपना तुझे

तुम रकीबों में शामिल रहा करो अब

साथ चलते हुए कदम थक से गये मेरे

दिल औ जिगर जान साथ छोडे़ है अब

कान्ता राॅय
भोपाल

होली बीत गई (कविता )

होली बीत गई
रीत गई सपने सारे
मेरे  साजन अंग ना लगे
पी की आस को मन तरसे
निराश हुए जग सारे
रंग अबीर सब हुआ फीका
कैसी होली
कैसी हमजोली
मुझसे जो साजन बिछुड़े
तुम गये सपने गई
गये सब सुनहरी धुप
तुममें मै ऐसी खोयी
बाकी  रहा ना रूप
तुममे ही मै रहती थी
मुझमें  तुम ही तुम थे खोये
सागर से नदियाँ मिलती है जैसे
मै मिलती पिया से ऐसे
तड़प तडप मै रैन गुजारू
तुम बिन जीवन जीयुँ कैसे 
तुम गये सपने गये
गये सब सुनहरी धुप

कान्ता राॅय
भोपाल

बिखरे लम्हे (कविता )

जोडते रहे समेटते रहे
उम्र भर लम्हों को हम
बिखडना था जिसे
वो बिखर कर ही रहा
समेटना काम ना आया
जोडना काम ना आया
आओ कुछ ऐसा करते है
दोनों मिलकर बरबाद होते है
जरा सा तुम प्रयास करना
बरबाद होने की
जरा सी  मै कोशिश करूँगी
बरबाद होने की
दोनों साथ मिलकर ही
आबाद हुए थे एकदिन
अब साथ मिलकर ही
बरबाद होंगे
सदा साथ होने का
एहसास ही काफी
होगा हमारे लिए
आबादी से बरबादी
तक का सफर
कोई कम तो
नही होता है ना

कान्ता राॅय
भोपाल

उड़ान (लघुकथा )

" सर , मै उड़ान के लिए तैयार हूँ । "

" यह आपकी पहली उड़ान है , कोई झिझक , कोई डर तो नहीं ...!!"

" कोई झिझक कोई डर नहीं । बस आप आदेश करें । "

कान्ता राॅय
भोपाल

नारी ही सम्पूर्ण सत्य है (कविता )

लुटा कर अपना सर्वस्व
सदा ही तृप्त रहती है
वो पोषक है वो जननी सबकी
उपहास नही उपहार है  रब की

बात करे वो जब आत्मसम्मान की  
तुम हुँहकारी भरते हो क्यों
आगे बढने की उसकी चाहत पर
तुम ताव दिखाते हो क्यों

उसने अब है ठान लिया
करेगी ऊँचा अपना गौरव
तुम सहर्ष स्वीकार करलो वरना
नही बचेगा तुम्हरा पौरुष

उसके होने से  ही तुम रहते हो
वो सत्य है वो वो अडिग है
दुनिया की दुनियादारी से
अब लडना सीख गई है

स्वीकार करो यही सत्य है
नारी ही  सम्पूर्ण सत्य है
सत्य से कब तक भागोगे
आखिर सत्य को कब स्वीकारोगे

कान्ता राॅय
भोपाल

वो अब सबला नारी है (लघुकथा )

हाथ में स्वर्णिम अवसर लेकर ,
विद्या आभूषण से सजधज कर ,
वो देखो अग्रसर हुई ।
कहो न उसको अबला अब ,
स्वंसिद्धा बनकर सबला अब
कई वीरों से बलवान हुई ।
गये दिन अब रोने वाली ,
गये दिन वो झुकने की ,
झुकना पिसना रोना ,
अब बातें है बरसों की ।
चमक रही हैं आसमान में ,
गुण सौंदर्य बिखराती हुई ,
कदम मिला कर घर से
बाहर निकली हैं ।
सहकर्मी सहधर्मिणी
सहयात्री कहलाई हैं ।
अंदर दहलीज के वो
सक्षम थी गुणवान थी तब भी ,
सरस्वती लक्ष्मी सुख समृद्धि की
देवी थी पहले भी ।
नारी जब भी उठती हैं
नये निर्माण बनाती हैं ,
परिवार को एक सुत्र में बांध ,
वो अन्नपूर्णा कहलाती हैं
धन धान्य किया घर को ,
संस्कारित हो अब बाहर आई।
सुशोभित हो हथियार
स्वर्ण अक्षरों से ,
दुर्गा हैं मैदान में अब ।
रणचंडिका रूप धरकर ,
शोणित पीने को आतुर हैं ।
समाज में विचरित रक्तबीजों का ,
वो शोणित पीने वाली हैं ।
महिषासुर वध करने वाली हैं ।
अब रोको ना उसे ,
अब टोको ना उसे ,
वो महालक्ष्मी जगत को ,
सुख समृद्धि देने वाली हैं ।
वो अब अबला नही ,
वो अब सबला नारी हैं ।
वो अब सबला नारी हैं ।

कांता राॅय
भोपाल

जननी(कविता )

तु सृजन करके नारी
उपनामों तले दबती है
क्यों नहीं संसार से
विद्रोह  बिगुल बजाती है

तु जननी जगत सृष्टा की
तुमसे दुनिया सारी है

तु जननी है जीवन की
तुझसे ही सृष्टि सारी है
तु अगर ठान ले मन में
कदमों में दुनिया सारी है

तु जननी जगत सृष्टा की
तुमसे दुनिया सारी है

कितना कठिन हो  अगर
तु इंकार कर दे मातृत्व से
क्या रहेगा संसार सृजन में
सृष्टि संचारित नारीत्व से

तु जननी जगत सृष्टा की
तुमसे दुनिया सारी है

करो उद्घोष मन मानव मे
हो प्रवाह नव चेतना का
करो हृदय से स्वीकार
कामना  करो सद्भावना  का

तु जननी जगत सृष्टा की
तुमसे दुनिया सारी है

नारी में  ही नर होता
नर में नारी कहीं नहीं
दे दो उसको उसका जीवन
बिन नारी तुम कही नहीं

तु जननी जगत सृष्टा की
तुमसे दुनिया सारी है

कान्ता राॅय
भोपाल

स्त्री शिक्षा ------- एक गहन विषय (चिंतन )


शारदा एक सरकारी दफ्तर में कर्मचारी है ।  उनकी तीन लड़की है । परिवार में बडे बुजुर्गों का बोलबाला है । सोलह साल की बडी लड़की की शादी तय कर दी गई । लड़की की माँ की मरजी जानने की जरूरत ही नहीं पड़ी ।
मेरे समझाने पर उसने घर में विरोध किया और उसकी लड़की अभी एम. बी.ए. कर रही है ।

स्त्री शिक्षा  नारी के आत्मसम्मान का प्रश्न है । नारी को खुद अपने जीवन के मायने को तय करना होगा  ।

नारी शिक्षा को लेकर समाज जागरूक अवश्य हुआ है , लेकिन सोच का स्तर में सुधार की अभी बहुत जरूरत है  ।

शहरों के अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में और निम्न मध्यम वर्गीय  लोगों में अभी बहुत जागरूकता की आवश्यकता बाकी है ।

मै अपने कार्य स्थल में विभिन्न महिलाओं से मिलती रहती हूँ  । मैने महिलाओं में स्त्री शिक्षा को लेकर सोच में बहुत भटकाव महसूस करती हूँ । मन आहत भी होता है ।

नारी शिक्षा के प्रति जागरूकता के कई सफल और बहुत से असफल प्रयास भी जारी रहता है मेरा  । सतत प्रयासरत रहती हूँ ।

लडकियों को सिर्फ इतना पढाना कि अच्छे घर में शादी हो जाये , सोच के इस स्तर पर मन में क्षोभ उठ जाता है ।
क्या सिर्फ शादी ही वजह होनी चाहिए स्त्री शिक्षा का ! .. उसकी आत्म निर्भरता क्यों नहीं ? --- क्यों शादी को ही जीवन का एक मात्र उद्देश्य बना कर चलते है हम ?

क्या जीवन का पर्याय शादी , बच्चे और बुढापा तिरस्कार और फिर मौत का इंतजार । क्या बस यही जीवन का एक मात्र निर्रथक उद्देश्य ?

प्रश्न है यह उस समाज से  , जो सनातन से स्त्री दमन का पक्षधर रही है ।
एक परिवार  बसाना ही क्यों एकमात्र उद्देश्य निहित है सब मन में !
हम क्यों ना शिक्षा ग्रहण को समाज उत्थान का विषय बनाए , शिक्षा समाज में सेवा देने का विषय बनाये ।
जिस लडकियों की किसी कारण वश समय पर शादी नहीं हुई , उनको गुनहगार साबित करना , उसकी शारीरिक सुंदरता असुंदरता के लिए कुंठित होना ,क्या यह सही है ?

मै नहीं मानती कि एक अर्थ पूर्ण जीवन जीने के लिए शादी जरूरी है  ।
जिंदगी में शादी एक हिस्सा भर होना चाहिए  ,  शादी के लिए जिंदगी नहीं ।

शादी  -  परिवार ये वो बंधन है जो आपकी सामाजिक उत्थान के लिए सह भागिदारिता को रोकती है । प्रायः स्त्री सक्षम होते हुए भी सामाजिक उत्थान से जुड़ नहीं पाती कारण उसका परिवार के प्रति प्रतिबद्धता ।

परिवार सेवा का निर्वहन सदा से नारी करती आई है , इसलिए अब कामकाजी होने के बावजूद उसको अपनी प्रतिबद्धता कायम रखनी ही पड़ती है ।

आयुषी एक बहुत बड़े कम्पनी में मैनेजर है । खाना बनाने से बच्चे की परवरिश उसकी ही जिम्मेदारी है । सुयश हमेशा पुरूष होने का फायदा उठा कर अपनी जिम्मेदारी से बच निकलते है । कभी कुछ काम कर भी देते है तो उसका बखान करते नहीं अघाते ।

नारी जागरूकता का तो यह हाल है कि पढ लिख कर स्वंय स्त्री का मन पराधीनता स्वीकार करने को आतुर होती है ।

यह बिलकुल भी नहीं हैं कि परिवार से प्यार नहीं करो , लेकिन उस प्यार को इतना हावी मत होने दो की आप का अपना आत्म सम्मान ही ना बचें ।

पौरुष भावना कई बार स्त्री समर्पण को गुलामी के स्तर तक का दर्जा देने से भी नही चुकती  । मैने देखा है कि कई कामकाजी महिला अपना पूरा वेतन पति को दे देती है , और फिर जरा जरा सी खर्च के लिए पति की तिरस्कार सहती रहती है ।

स्त्री अपना प्यार सदा समर्पण बन कर लुटाती रही है और पुरूष सदा से दमनकारी रहा है ।
आज का पुरूष करता  तो है  बदलने की बात लेकिन सच्चाई अभी बहुत दूर है ।
पुरूष बेटी के मामले में जितना उदार हो जाता है उतना ही संकीर्ण पत्नी के लिए उजागर होता है ।

स्त्री को अपना सम्मान खुद कमाना होगा । शादी जीवन का पर्याय नहीं है यह समझना होगा ।
जीवन की उत्कृष्टता जीवन मुल्यों को समझने में है ।
" स्त्री जागो ! तुम शिक्षित बनो समाज के लिए !
तुम शिक्षित बनो देश उत्थान के लिए !
तुम शिक्षित बनो नारी सम्मान के लिए !
नारी में निर्माण की अद्भुत क्षमता है ।
अब तुम्हारी बारी है , अब तुम्हें साबित करना  है कि नारी जब भी उठती है नये निर्माण बनाती है ।

कान्ता राॅय

F - 2 , V - 5 vinayak homes
Mayur vihaar
Ashoka garden
Bhopal
462023

अंतर्द्वंद्वों के घेरे में (लघुकथा )


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आज मन फिर से अंतर्द्वंद् से जूझ रहा था । नींद की आगोश में समाने के लिए एकबार फिर से प्रयत्नशील हो रही थी । विचारों का आना जाना ना जाने क्यों रात के नीरिवता में ही होती रहती है ।

इस कपड़े  में अचानक से जैसे कोई पैबंद लग गया हो । यह तो कहीं से फटा भी नहीं था फिर भी पैबंद लग जाना  । पैबंद लगाया था कि खुद में स्वंय लग गया ।

इसका जानना तो मेरे लिए बेहद जरूरी था , लेकिन क्या कभी इस रहस्य को उजागर कर पाऊँगी कि मेरे जीवन में मैने कई पैबंद लगा रखे थे ।

रात को सोते हुए भी जागती सी रहने की जो आदत है वो क्या पहले भी थी या सिर्फ तुम्हारे लिए ही था । यह स्वीकारोक्ति बहुत ही मुश्किल रहा है मेरे लिए हमेशा से ।
क्या प्रेम को निश्छल होते हुए भी छलित होना कोई समझ पायेगा ?

मन में छुपे हुए रहस्यों को अगर उजागर कर दूँगी तो वो क्या इतना ही निर्मल रह पायेगा ।बिना इल्ज़ाम लिए रह पाना बहुत ही मुश्किल होगा ।

वो पुकारा करता है अंतर्मन में मेरे । उसकी कलपती हुई आवाजें मुझे सोने नहीं देती है । वो रोता रहता है मेरे मन के अंदर । यह चेहरा उसका बाहर मुझे कभी भी नजर नहीं आया लेकिन उसकी  असली पहचान  मेरे अंदर ही कहीं छिपी  रखी  है ।

अचानक से मेरे सीने में दर्द सा जाग गया था और मै समझ गई कि वो तड़प कर रह गया है अभी ।
कभी सोचती हूँ वो कहीं भ्रम तो नहीं मेरे लिए । मै उसका मेरे में होने के महज़ मेरे ही द्वारा रचा कोई नया शगुफा हो लेकिन यह दर्द का क्या ?

कान्ता राॅय
भोपाल