शनिवार, 14 मार्च 2015

फर्श का अर्श (लघुकथा )


" माँ , देखना एक दिन मै बहुत पैसा कमाऊँगा और बहुत बडा आदमी बनूँगा । " --- माँ को घरों में बर्तन माँजते हुए देख  विजेन्द्र का दिल रो पडता था ।

पैसे की तंगी से पढ़ाई बमुश्किल ही कर  पाया था ।  सरकारी दफ्तर में जब नौकरी लगी तो सिर्फ पैसा कमाना ही उद्देश्य समझा उसने ।
कुछ ही साल में विजेन्द्रपाल सिंह शहर के रईसों में गिना जाने लगा ।

" ओह ! ऐसा कैसे हो गया । "-- चुनाव परिणाम विपरीत साबित हुआ और उम्मीदें धरासायी हुई ।
चंद महीनों बाद ही अचानक विजेन्द्रपाल सिंह के दफ्तर , कारखाने और घर पर छापा पड़ रहा था ।
फर्श का अर्श फिर फर्श पर ही आ गिरा था ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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