शनिवार, 14 मार्च 2015

बदलते चेहरे ( लघुकथा )

डायनिंग टेबल पर सबके लिए अलग अलग व्यंजन सज रहे थे । मोनू , रिंकी के साथ आलोक  मुस्कुरा कर एक दुसरे की तरफ देख रहे थे ।

" क्यों मुस्कुरा रहे हो तुम लोग ? चलो खाना शुरु करो और बताओ मुझे कि कैसा बना है सब । "

" कहो क्या कहना है तुम्हें आज फिर से ? जरूर कोई नई चाहत ने करवट बदली है । चलो कह भी डालो ! "

" मम्मी , आज क्या बात है ? हमारी पसंद के डिसेज वो भी इतनी अच्छी ! आप तो कह ही डालो क्या बात है ? "

" तुम सब कैसे जान लेते हो मेरे मन की  कि मुझे कुछ कहना है ? "
हम पिछले कई वर्षों से कई देश कई हिल स्टेशन घुमते रहे । इस बार कोई युरोप टुर मत बनाना गर्मियों में ! "

" तो क्या इस बार कहीं नही चले छुट्टियों में ? " बच्चों सहित आलोक भी चौंक पडे थे । "

" ऐसा कब  कहा कि नहीं चलेंगे ? हम इस बार क्यों ना अपने गाँव चले ! बच्चों को तो याद भी नहीं होगा गाँव । पिछले पंद्रह साल से हम कहाँ जा पाये है ! "

गाँव की कठिनाई भरी जिंदगी और सुविधाओं के अभाव पर चर्चा होने के पश्चात तय हो ही गया कि हम इस बार गाँव की सैर ही करेंगे इस बार की गर्मियों की छुट्टी में ।
नियत समय में हम गाँव के सफर में थे । चौड़ी चौड़ी सडकें और हमारी गाँव से लगी  वो छोटी सी हाट एक बडी़ मार्केट में तब्दील हो गई थी ।

"वाह !! बिजली की समस्या भी नहीं रही अब यहाँ तो ।"
गाँव पहुँचते हुए जो बदलते परिवेश को मैने महसूस किया तो मुझे गर्व हो आया था अपने गाँव पर ।
अब गाँव वो पिछड़ा हुआ इलाका ना रहा नये भारत में वह भी अपना चेहरा बदल चुकी थी  ।

कान्ता राॅय
भोपाल

कोई टिप्पणी नहीं :

एक टिप्पणी भेजें